कहूँ मैं कैसे?
कहूँ मैं कैसे?
सिहर जाती हूँ,
सहम जाती हूँ,
कोई भी हाथ लगा दे
तो अब डर जाती हूँ|
क्या करूँ,
वो तोहफा जो तुमने दिया,
दर्द और वहशत का,
उसे भूल कर भी अब,
भूल नहीं पाती हूँ|
तुम्हारे होंठ मेरे बदन पर चलते रहे ,
मेरी आँखों से आँसू गिरते रहते,
इतना रूलाया तुमने तब,
इन आँखों में न रहे आँसू अब|
गुड़ियाँ है मेरी,यही तो कहते थे न तुम,
अपनी गुड़ियाँ को इतना दर्द कैसे कोई दे सकता है
छोटी थी तब, नहीं समझती थी तब
क्या कीमत चुकाई है मैंने खिलौने और भरोसे की
ये बात तो समझी हूँ अब ?
ये तो लगता ही है
अभी भी अच्छे लोग बुरे लोगो से कम है
क्योकि आज भी एक गुड़िया की आँखे नम है
उसको भी यही हिदायत जो दिखे वही बोलना,
ऐसी गन्दी बातों पर मुंह न खोलना |
पर सोचती हूँ कब तक चुप रहूँ ?
किसी राक्षस को कब तक राक्षस न बोल
अंकल कहूँ ?
पर डरती हूँ
क्या कोई समझेगा मुझे ?
कि किस तरह रोज खुद से लड़ना होता है?
बहुत कहने को होता है,
पर किसी रिश्ते, किसी मर्यादा के नाम पर चुप रहना होता है |
फिर भी,
दिखा बहुत ही हिम्मत मैंने,
जब कहनी चाही अपनी मनोव्यथा,
तब भी सबने रोका,
जब कह डाला मैंने सबकुछ,
तब सबने मुझको ही टोका|
मेरा क्या अपराध है कोई मुझे बता दे,
ये दुनिया के तौर तरीके कोई मुझे सिखा दे,
ऐसे तो सारी बातो पर तुम कुछ न कुछ कहते,
पर सुनकर मेरी मनोव्यथा तुम सब कैसे चुप रह लेते?