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जब दिल ही नही हैं काबू में

जब दिल ही नही हैं काबू में

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क्यूँ आई तू आज फिर अचानक हमेशा कि तरह ..

यादों की बारात ले कर सपने में झूमती हुई !

न चाहते हुए भी नींद को हराम कर गई ...

क्या मिलता है तुझे इस तरह मुझे सताकर ?


तुम तो चली गई यूँही मेरी जिंदगी से..तेरी मर्ज़ी...

लेकिन क्या हक़ है तुझे अब मुझे परेशान करने का ?

तू तो पहले से ही अपनी मर्ज़ी से जीती थी, जियेगी मालूम है...

तेरे सिवा मुझे कोई काम नहीं? क्या मेरी कोई निजी जिंदगी नहीं ?


क्यूँ तेरा होना, ना होना मुझे हमेशा छलता है ?

तेरे सपने, तेरी यादें मुझे पागल बना देते हैं दिन रात !

काश ! तुम अपनी यादें भी साथ ले जाती, कभी ना याद आती ...

तो कितना अच्छा होता ! मैं इस तरह अकेले में यूँही ना रोता !


प्यार मोहब्बत, यार -वफ़ा, कसमें - वादे झूठी, फरेबी सब दुनिया...

खुद से भी ज्यादा भरोसा था तुझ पर गैरों से क्या शिकायत करूँ ?

जब तुही बेवफ़ा निकली, फिर भी यह दिल तेरा ग़ुलाम है ...

मैं भला क्या करता? वीरान जिंदगी मेरी जब दिल ही नही है काबू में .!.


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