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तवायफ़

तवायफ़

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हाँ मैं एक तवायफ़ हूँ

जिस्मफ़रोशी का धंधा करती हूँ

बदनाम गलियों में रहती हूँ

गालियाँ सबकी सुनती हूँ

शाम होते ही सजती संवरती हूँ

सेज हर रात नई मैं सजाती हूँ

सभ्य समाज के सभ्य

सफ़ेदपोशों की रातों को 

रंगीन करती हूँ

हाँ मैं यह नीच काम करती हूँ

रात के अंधेरों में आते हैं

दिन के उजालों से डरते हैं

शरीफ़ कहलाते हैं वो

बदनाम मैं ही होती हूँ

लुटाते हैं मुझ पे सैंकड़ो रुपए

उसी से तो अपना पेट भरती हूँ

हाँ मैं यह गुनाह करती हूँ

शारीरिक सुख की

तलाश में भटकते

भूखे वहशी लोगों की

भूख मिटाती हूँ

उनके पापों को अपनी 

कोख में पनाह देती हूँ

बिन बाप के नाम के 

बच्चों को नाम 

अपना देती हूँ

हाँ मैं यह स्वीकार करती हूँ

आँखों में आँसू, लबों पे 

मुस्कान लिए थिरकती हूँ

गम को सीने में दफ़न किए

मन सबका बहलाती हूँ

अतीत अपना भूल

वर्तमान में जीती हूँ

हाँ मैं ज़िन्दा लाश की तरह 

किसी तरह तन अपना

समर्पित करती हूँ

कभी कभी यादें 

जीना मुश्किल कर देती हैं

ग़रीबी इंसान को क्या 

इतना कमज़ोर कर देती है

जो इज्ज़त बेटी की

बेचने को मजबूर कर देती है

सोच सोच कर खुद को

समझा लेती हूँ

किसी तरह से दिल को

बहला ही लेती हूँ

बस हालातों से 

समझौता करती हूँ

घुट घुट कर जीना भी 

क्या कोई जीना है

हाँ तो भी मैं ज़िन्दा हूँ,

न इस ज़िंदगी से शर्मिंदा हूँ

ज़हर यह चुपचाप 

पिया करती हूँ

हाँ मैं एक तवायफ़ हूँ 

जिस्मफ़रोशी का धंधा करती हूँ.


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