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मैं

मैं

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औरत हूँ , गर्व है मुझे इस बात का ।
जन्म दिया माँ ने मुझे जब , शुक्रिया करती हूँ मैं उस रात का ।
आधे से ज़्यादा गुज़र गया जीवन मेरा हँसते - मुस्कारते।
बाक़ी भी कट जाऐगा ईश्वर की दी ख़ुशियाँ मानते ।
मुड़ कर देखती हूँ कि क्या खोया क्या पाया मैंने ।
जीवन के उतार चढ़ाव में लगती हूँ बहने ।
जन्म नहीं पाया दिल्ली में मैंने ।
पर इसे अपनी कर्मभूमि बनाया मैंने ।
बाँहें फैला कर स्वागत किया इस शहर ने मेरा । 
यहीं तो देखा मैंने अपने जीवन का नया सवेरा ।
मैं बनी अध्यापिका कई अध्येताओं को पढ़ाया मैंने ।
जीवन में अपनी राह पर सर उठा कर चलना सिखाया मैंने ।
दिल्ली को मैंने अनगिनत क़ाबिल इंसान दिऐ ।
बदले में इसने भी तो मुझ पर कई एहसान किऐ ।
यहाँ मुझे प्यार, धन, दौलत, बहुत कुछ मिला ।
इतना मान - सम्मान पाया कि बाक़ी रहा न कोई गिला ।
देश की राजधानी में मैं पुरुषों के साथ  कंधे से कंधा मिला कर चल पाई ।
सदा जीत ही हासिल की कभी न मुँह की खाई।
एक आम नारी से ख़ास बन गई।
एक छोटे शहर से आ कर इस महानगर में रम गई ।
ख़्वाहिश है कि बाक़ी जीवन भी यहीं अर्पण कर दूँ ।
अज्ञान के अंधकार को दूर कर सब के जीवन को ज्ञान के प्रकाश से भर दूँ ।
 
     Copyright Deepa Joshi 


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