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देह से परे स्त्री

देह से परे स्त्री

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स्त्री देह से इतर

जीने लगी 

मन की बातें / कविताओं में 

कहने लगी 

तलाशने लगी / अपना खोया वजूद 

अनकहा / कुछ -कुछ / कड़वा /तीता सा 

आने लगा बाहर 

हल्का होने लगा मन / 

किन्तु 

मौन के मुखर होते ही 

चटक गए कुछ रिश्ते / सींवने उधड़ी तो 

झाँकने लगे / अनचाहे सवाल 

रिसने लगे / पुराने ज़ख्म 

मचने लगे / बवाल 

कवायदें / हो गईं ज़ारी 

स्त्री को / वापस देह में उतारने की 

स्त्री देह में ही सीमित रहे / तो ही भली लगती है 

भला स्त्री का भी / कोई मन हुआ करता है 

के / कुछ कह सके

स्त्री तो नदी है/ चुचाप बहती ही

अच्छी लगती है।

नदी उफान पे आये तो/भला किसे अच्छी लगती है

बहा ले जाती है साथ/ सारी सम्पदा

स्त्री भी अपने पे आ जाये तो

तोड़ देती है/तटबंध

बाँध दो स्त्री को भी/भावनाओं के भंवरजाल में

क़ैद कर दो/रूप के संजाल में

लाद दो/ जेवरों और लिबासों के कफ़न

के कर न पाये....उफ़ तलक

ग्लैमर की चकाचौंध से/मूँद दो आँखें

के झाँकने न पाये/मर्द की ऐयाशी की दुनिया में

स्त्री आख़िरकार स्त्री है।

अपने दायरे में ही/शोभा देती है

 भोली स्त्री/भली स्त्री/ठगी ठगाई स्त्री

 वही तो चाहिए/घर में

 देह में / महज़ देह के लिए जीती हुई स्त्री

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