मासिक धर्म के पांच दिन
मासिक धर्म के पांच दिन
वो दिन होते हैं,
जब रक्त सैलाब-सा बहता है।
वो दिन होते हैं,
जब तन दीपक-सा दहता है।
वो दिन होते हैं,
जब मन सिर्फ दुख गहता है।
वो दिन होते हैं,
जब जीवन बोझिल हो टहता है।
जब धूप जेठीली होगी तो,
अपने तले छांह पालूँगी।
पूस के सर्द दिनों में मैं,
आँचल में आंच उबालूँगी।
सबके खाने के बाद बचा-कुचा,
कुछ भी खा लूँगी।
मैं सुख-दुख के सारे नग़मे,
हँसते-हँसते गा लूँगी।
दूँगी मैं फिर झाड़ू-खटका,
मैं चौका-बर्तन सम्भालूँगी।
बच्चों के नखरे,बूढ़ों के खखरे-सखरे,
मैं फिर सब बोझ उठा लूँगी।
तेरी कही हर बात को मैं,
अपने शीश पे धारूँगी।
फिर पहनूँगी मैं झुमके-बिछिया,
तेरी सेज सवारूँगी।
बस इतना सा जतन कर लो,
वो पाँच दिन सहन कर लो।