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निशब्द

निशब्द

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कहने को कुछ नही था

पर समझने को बहुत कुछ था

जो शायद कहने से नही समझाया जा सकता था

सारे शब्द निःशब्द खड़े हुए थे

एक नन्हे बच्चे की तरह

जो बोल नही सकते थे

लेकिन चाहते थे

उसकी मौन भाषा को,

कोई अक्ल से नही

दिल से पढ़े

अरमानों की खाली थाली में

ये फ़रमाइश नही रखते,

कि कोई दिखावे का अपनापन बेमन से परोसा जाए

इच्छा या अनिच्छा की गुंजाइश कहाँ रहती 

पेश करने की

क्या सब कुछ कहने से ही समझाया जा सकता है?

तो दिल से निकली आवाज़ ख़ुदा तक कैसे पहुँच जाती है?


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