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Rashmi Prabha

Abstract

5.0  

Rashmi Prabha

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घर बेचना है

घर बेचना है

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बेचा जा सकता है कोई घर ?

उसके भीतर की धमाचौकड़ी 

घमासान डाँट फटकार

छुपाकर रखी चीज को 

चुपके से खाना।


वो वीरप्पन कीआलमारी से

किसी भी चीज का निकल आना 

धीरे से टीवी देखना 

कंप्यूटर के पासवर्ड के लिए

आंखों से मनाना,


एक का बाथरूम में जाकर सुबकना

एक का फोन पे लगे रहना 

और एक का मुझे मुस्कुराते हुए देखना

कि रह जाऊँ आज घर पे ...


वो घर क्या सचमुच बिक सकता है ?


पैसे आएँगे 

कितने ? 

कब तक रहेंगे ?

कोई कब्जा कर लेगा !

क्या सचमुच ?


चलो बेच दूँगी 

पर, नहीं बेच सकूँगी

वह टूटी शीशेवाली खिड़की से आती 

पानी के छींटों से भीगने की मस्ती

घुप्प अंधेरे में कहना,

हे भगवान, दयानिधान 

लाइन भेज दीजिये ...


बिजली के आते खुशी से चिल्लाना !

नहीं बिक सकेगा 

वह खास नेमप्लेट

जिसके मायने 

हर बार 

कोई न कोई पूछता है .


नहीं बिक पाएगा

वह छोटा सा सिमटा घर

और कैसेट जैसी संपत्ति से मिली 

धक धक करती धड़कनें 

आंखों में उतरे ख्वाब 


बिना वजह हँसना

ट्वेंटी नाइन खेलना

लूडो की बैठकी 

लड़ाई

.... 

किराए के घर के उतार चढ़ाव 

किराए के ही हो गए 

अपने घर के छोटे से हिस्से में

हनुमान ध्वजा लगाकर

हम हर उतार चढ़ाव से निश्चिंत हो गए !


कीमत आंकना,

कीमत लेना 

आसान है क्या ?

लेकिन दुनियादारी !

चलो -

किसी न किसी दिन 

बेच दूँगी।


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