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अंतर्यात्रा

अंतर्यात्रा

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उदासी

सिरहाने आ बैठती है

जैसे कोई तोता 

कहीं दूर से आकर

आ बैठता है किसी डाल पर

फिर देखता है

इधर-उधर

और नुकीली चोंच मारने लगता है

बेतरतीब, बेपरवाह, बेवजह


अजीब फ़ितरत है तोते की

उड़ जाता है

जा बैठता है फिर किसी डाल पर

उसे छेड़ने

उसे सताने

और छोड़ जाता है 

हर बार 

हर डाल पर

एक चुप्पी

एक ख़ामोशी 

एक सूनापन


मैं निकल पड़ता हूँ

एक यात्रा पर

यह सोचकर कि

कम से कम एक बार जोर से चीख लूँ

कि यह सन्नाटा टूट जाए

जैसे टूटता है

कांच का कोई जार

खींचता हूँ दम भर साँस

ताकि भीतर के निर्वात को भरा जा सके


मैं लौटता हूँ 

उन खंडहरों की तरफ

जो कभी घर हुआ करता था

अब महज कुछ टुकड़े शेष हैं

कल शायद यह भी न रहे 

मैं बार-बार खुद से कहता हूँ

अब न लौटूंगा इस ओर

मगर कुछ है जो 

अगले ही क्षण 

मुझे मेरे ख़िलाफ़ कर जाता है

टुकड़ों को सहेजता हुआ मैं

दुबारा वही पाया जाता हूँ


मैं एक अधूरा अफसाना सुनाता हूँ

जिसमें न कोई राजा है 

न कोई रानी है

कुछ किरदार हैं

मगर अधूरे

कुछ वाक्य हैं

आदतन अधूरे

चंद ख़्वाहिशें हैं

मगर बेतरतीब...


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