पंछी का बसेरा
पंछी का बसेरा
मैं आगन में बैठी कुछ सोच रही थी,
पंछी मेरे कानों में कुछ बोल रही थी।
उसकी उन आँखों में कुछ नमी सी थी,
ओह, शायद वो थोड़ी सहमी सी थी।
पुछा मैंने जब उदासीनता का कारण,
करने लगी मेरे आस पास परिक्रमण।
कहा जैसे तुझे एक सबेरा चाहिए,
वैसे मुझे भी एक नया बसेरा चाहिए।
अरे कुछ दिन पहले देखा था नया डेरा,
फिर अब क्यों चाहिए तुझे नया बसेरा।
गाँववालों ने उस पेड़ को काट दिया,
और शाखाओं को आपस में बाँट लिया।
देखा जब मैंने तो घोसला दबा हुआ था,
पास गयी तो अंश मेरा मरा हुआ था।
इन्सान को उस कुकर्म का ज्ञात नहीं,
अच्छा, चल तू घोसला बना लें और कहीं।
जब मैं गयी जंगल में तो पेड़ नहीं थे,
कुछ इन्सान बना रहे झोपड़े वहीं थे।
फिर मैंने कहा कोई चारा नहीं उड़ जा,
साथियों को लेकर कहीं और मुड़ जा।
मेरे साथियों को इन्सानों ने मार डाला,
कभी पेड़ काटे, तो कभी उन्हें खा डाला।
ठीक है, बना ले बसेरा तू मेरे आँगन में,
क्योंकि थे पंछी वहां भी बचपन में।
उछल कूद कर वह तिनके ला रही थी,
बड़ी खुशी से घोसले को बना रहीं थीं।
कुछ दिनों में घोसले किसी ने तोड़ दिया,
मुझे लगा पंछी ने अब बसेरा छोड दिया।
गयी नजर जब ऑगन के एक कोने में,
कुछ पल ही बचे थे उसके सोने में।
आज फिर मैं आँगन में सोच रही थी,
वह पंछी आखिरी पल बोल रही थी।
उसकी आवाज मेरे कानों में गूंजती है,
बस मुझसे एक ही बात पूछती हैं।
क्या इन्सान सचमुच आत्मनिर्भर हैं,
हम सभी जीव एक दूसरे पर निर्भर है।
गर वह पेड़ो व जीवों को काट खाएगा,
दूर नहीं दिन जब उनका भी अंत आएगा।