रहनुमा
रहनुमा
मै अकेला कैसे बदलूँ,
इस दरकते ठौर को,
मुझको औरों की मदद,
और कुछ ख्याले अकीदत चाहिये।
फिर से मौला मै बनूँ,
फिर से मैं गर्दिशे ख़ाक हूँ।
इस तरह बदली फ़िज़ा को,
क्यूँ शहादत चाहिये ?
रोशनी को फ़कत आग,
समझोगे तो जला बैठोगे घर।
इसको चराग़े नूर बनकर,
घर जगमगाना चाहिये।
मै भी इंसा, तुम भी इंसा,
इंसानियत के ख़ातिर सही,
घर मे बेटी जन्मे तो,
जश्न बेटों सा मनाना चाहिये।
चल पड़ो उस राह पे,
जो जोड़े टूटते रिश्तों के घर।
जिस जगह से निकलो,
उसको पक्का जद, बनाना चाहिये।।