काश सूरज की जुबान होती
काश सूरज की जुबान होती
काश सूरज की जुबान होती
वो बताता हमको
प्रकृति नहीं करती अंतर
उसने दिया है सबको अपना-अपना वजूद
वो बताता हमको
इंसान की परिभाषा में
जितना पुरुष है शामिल उतना स्त्री भी है शामिल
न कोई प्रथम, न कोई द्वितीय
दोनों अद्वितीय
न कोई बड़ा, न कोई महान
दोनों बराबर, बस इंसान
दया, ममता, करुणा, सेवा
विश्वास, आत्मविश्वास, सहनशीलता
आक्रामकता और लज्जा
हर एक के पास
बस, बराबर-बराबर
जी हां सूरज की जुबान होती तो वो बताता हमको
एक जननी तो एक जनक
मतलब ये नहीं
एक कमज़ोर तो एक ताकतवर
वो बताता हमको
प्रकृति के उपहार का उड़ाओ मत उपहास
आखिर सदियों से ये ख्याल ही तो है हमारा
राम पेड़ पर चढ़ता है, हवाई जहाज से खेलता है और,
कुसुम पानी लाती है, गुड़ियों से खेलती है
हां यदि वो बोलता तो शायद
चीख-चीखकर कहता हमसे
क्या बदल नहीं सकते तुम अपने ख्याल
मैं अकेला देख रहा हूं
सदियों से ये झंझावात
कहीं इससे पहले मैं हो जाऊं
निस्तेज, निष्प्राण
कोई तो आओ
एक बार, एक साथ
एक पल के लिए
और दे दो प्रकृति के निर्णय को सार्थकता
नहीं है नर नारी में कोई भी भगवान
दोनों एक समान, बस इंसान
मैंने चुना सूरज को बोलने के लिए
मैं चुन सकती थी चांद भी
पर शायद चांद अंधेरे की गफलत में खो जाता
शायद कह देता ऊलजलूल
लेकिन सूरज है संपूर्ण प्रकाश के साथ
देख रहा है शाश्वत सत्य
इसीलिए...काश उसकी जुबान होती
वो बताता हमको
सिर्फ सत्य।