वक़्त जिसे कहते हैं
वक़्त जिसे कहते हैं
वक़्त
जो एक ही मिट्टी से
हमें गढ़ता है
नाना रूपों और आकारों में
वक़्त
जो कुम्हारों का कुम्हार है
वक़्त
जो थपकी देता दुलार है
वक़्त हमें गाँठता है
ज्यों गांठे कोई मोची
किसी फटे हुए जूते को
जो हमारे तलवे के
उठने से पहले
ख़ुद ही बिछ जाता हो
वक़्त एक ऐसी लंबी चादर है
देखो जो अगर
वक़्त है एक लुहार
जिसकी भट्ठी कभी
ठंडी नहीं होती
जो स्वयं तपे
और हमें भी तपाए
यूँ किसी लायक
हमको बनाता जाए
गह गह कर जो गहे
वक़्त तो ऐसा परिष्कार है
वक़्त
जो दुनिया का
सबसे बड़ा कारीगर है
वही वक़्त है बेरहम ऐसा
जो कुछ भी
नया नहीं रहने देता
जो पलों में पाहुने को
पुराना कर जाता है
वक़्त हर खेल का जितवार है
वक़्त है
ज्यों हो कोई
सदाबहार बादल
जिसकी बरसात में
सबकुछ धुलता चला जाता है
मिट्टी का माधो
मिट्टी में मिल जाता है
नामचीनों की भारी हस्ती
धनवानों की ढेरों मस्ती
ग़रीबों की हौसलापरस्ती
ज़िंदगी महँगी और सस्ती
सब बह जाए जिसमें
वक़्त वह तीक्ष्ण धार है
वक़्त है
ज्यों हो कोई
सधा औघड़
जिसकी झोली में
यादों के कई चकमक रहते हैं
भरमाते तो कभी हमें चौंकाते हैं
वक़्त
जो रह-रहकर
अपनी झोली
पलटता जाता है
हमें अंदर-बाहर
भरता जाता है
विपर्यय से भरे जीवन में
वक़्त
नित्य एक विचार है
वक़्त
जिसकी मुट्ठी से
हम सभी फिसलते
चले जाते हैं
मगर जिसकी मुट्ठी
आज तक
ख़ुद कभी ख़ाली नहीं हुई
वक़्त वह अकूत भंडार है।