" हर दिन के सफर में मैं "
" हर दिन के सफर में मैं "
हर दिन के सफर में मैं, मंज़िल भूल जाता हूँ,
आसपास की सलवटों वाली कमीज़ों से मैं,अपनी कहानी का सा एहसास पाता हूँ ।
कान के झुमके देख मैं, उसकी आज़ादी का क़यास लगाता हूँ।
झुर्रियों से ढकी परछाई को वहाँ खड़ा देख मैं,सीट पर फैली मूंछो की मर्दानगी का हिसाब लगाता हूँ।
शीशे में से तेज़ी से पीछे भागती हुई ज़िन्दगी को देख मैं,अपनी तरक्की का गुणा -भाग लगाता हूँ,
वर्तमान के कर्तव्यों से बंधे कंधों को देख मैं, उन पर बैठने वाली खुशियों का भविष्य उज्जवल सा पाता हूँ।
उम्र से भी बड़े वज़नों को नाज़ुक कंधों पर चढ़ा देख मैं,अपनी उस भीगी कागज़ की नाव को और भी हल्का पाता हूँ,
नीचे फर्श पर उन जूतों पर जमीं मिट्टी को देख मैं,उनके सुथरे आसमां से मिल पाता हूँ।
चार बाई छह इंच के उस समंदर में जंग की ख़बर पढ़ मैं,वहीं सिमट जाता हूँ,
काठ की दीवारों इन पर लटके हुए ताले देख मैं,अपनी आज़ादी की तारीख़ को फिर से आगे पाता हूँ।
बस या फिर मैं यह कहूं की चंद मिनटों के इस सफर में मैं,
हर रोज़ कई कहानियां देख जाता हूँ।
लेखक: नितिन शर्मा