Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

Bhagirath Verma

Others

3  

Bhagirath Verma

Others

आज का कवि

आज का कवि

7 mins
7.3K


आज का कवि
आज के पाठक की शिकायत है,
'सही कवि' के अभाव की,
आज के कवि की पीड़ा है-
'सुधी पाठक' पाठक के अभाव की,
इन अभावों से गुंथे समाज में
लुप्त हो गया है भाव
और मृत हो गई है कविता,
क्योंकि,
भाव विहीन कविता,
शील विहीन नारी
चरित्र विहीन पुरुष
मृत ही होते हैं।
कवि का रोना है-
विषय के अभाव का,
विषय की तड़प है-
दृष्टि के अभाव की...
वैशम्य, तनाव, दारिद्रय से पीड़ित मानवता
समस्या-सिंधु की भयंकर झंझा में...
डूबती सी सभ्यता...
इस निकृश्टतम मानव बाज़ार में...
व्यवस्था के कृ्रीतदास
सुविधाओं से घिरे
परजीवी, परोन्मुखी
गोठिल सोच-लिए...
आज के कवि...
दृष्टिविहीन रचनाकार
मृत ही होते हैं।
आज के कवि को भय है-
बाहयाघातों, इलेक्ट्रानिक युग से...
प्रत्येक परिवर्तन को देखता है वह,
भयातुर सा...

कालु सा............
नकारता है वह,
कि-
गति ही जीवन है और विराम मृत्यु हैं।
विडम्बना है उसकी अति तीव्र...
वह तलाश रहा है समस्या का निदान
बाहर कहीं...

कस्तूरी मृग की भांति,
जो भटकता है दिन रात
अपनी सुगंध की तलाश में...
आज का कवि मात्र शिकायत करता है-
समय-सत्ता-समाज के
दिशा और दशा की,
विपक्ष की भांति विस्मृत करता है-
इनमें संशोधन-परिवर्तन का आयोजन भी
करना है उसी को,
नवोन्मेश का अलख भी जगाना है
उसी को,
कपोतधर्मी, नपुंसक बुद्धिजीवी, स्वकेंद्रित...
बना रहता है वह-शूकरवत।
आज का कवि नहीं देख सकता
मानवकल्प झुंड,
जो खड़े रहते है अल सुबह
प्रत्येक चौराहे पर...

किसी के हाथ में होती हैं
गंदे कपड़े में लिपटी कुछ रोटियाँ,
किसी की पोटली में होते हैं
कुछ भुने हुए चने
या कुछ और ऐसा ही...
तन पर वस्त्रांश
मन में संशय...
कैसा होगा आज का दिन...
कल के लिए उनके पास
न तो विचार है और न ही अवकाश...
प्रत्येक आने वाले को निहारती दृष्टियाँ
शून्य में कुछ तलाशती सी,
ज्यों भयंकर सूखे में
खोज रही हो वर्षा की प्रथम बूँद।

काम मिल जाना ही
उनका सर्वोत्तम प्राप्य है...
उसी से शाम को घर में जलेगा चूल्हा
अगले दिन के संघर्श हेतु मिलेगी रोटी
उसी से उसे निकालता है अपना...

जी.पी.एक., जी.आई.एस. पेंशन
एवं अकास्मिकता कोश...
और उसी से पूरे करने है सपने...
बिटिया की शादी,
लड़के का मुंडन,
पुरखों की मरजाद,
वह बीमार भी हो लेता है
कभी-कभी,
इसी से उसके जीवित होने का
भ्रम बना रहता है...
अपनी बीमारी के लिए भी
वह कुछ-न-कुछ बचाने की
असफल चेश्टा करता है...

वह जानता है-
अगले दिन काम न मिलना
मिलने से अधिक निश्चित है,
यह 'निश्चिन्तता' ही बन जाती है
उसके व्यक्तित्व का स्थायी भाव
वह देखता है- निरीह बेबसी से
चिकित्साभाव में प्राण त्यागते अपनों को,
और असमय वृद्ध होते स्वयं को...
एक निरीह तटस्थता सी आ जाती है,
उसके समग्र व्यक्तित्व में...
जीवन से लड़ता है वह
नितांत एक पक्षीय युद्ध
बिना किसी शस्त्र अथवा सहायक के,
रथ की बात ही क्या...
पादुका भी ऐश्वर्य है उसके लिए,
श्री कृष्ण की भांति रथ का पहिया
भी नहीं उठा सकता वह,
यह शक्य ही नहीं है उसके लिए,
प्रत्येक युग की भांति
दुःखांत तय है
कलियुगी महारथियों से घिरे
इस आज के अभिमन्यु का...
किन्तु वह अकिंचन, अभागा...
नहीं बन पाता-
'किसी रचनाकार का विषय'
न ही किसी रचनाकार को उससे
प्राप्त होती है- प्रेरणा।
आज के रचनाकार को प्रेरणा प्राप्त होती है-
गजगामिनी से...
मानिनी से...
या स्वप्न सुंदरी से,
या शक्ति, सत्ता अथवा पूंजी से...
उसे ऊर्जा प्राप्त होती है-
वातानुकूलित होटलों में,
वैचारिकता प्राप्त होती है-
विदेशी मदिरा के प्यालों से।
आज का कवि नहीं देख सकता उस व्यवस्था
को
जो सर्पिणी को भांति
निगल रही है,
अपने ही बच्चों को,
जोंक की भांति रक्त चूस
रही है-
समस्त मानवता का।
'आज का कवि' नहीं देखता है-
उन अभागों को,
जो किसी भी बरात में
ढो रहे होते हैं सिर पर अपने
रौशनी का भार...
चप्पल मुक्त बिवांइयाँ युक्त उनके पैर
भोजन मुक्त चिंतायुक्त उनकी काया...

आकर्षित ही नहीं कर पाते वह
ध्यान किसी का...
खो जाता है 'आज का कवि'...
सुंदरियों के बियाबान में
बेशर्म चमक-दमक में
जो होती है-एक गंदी सी टिप्पण़ी-
हमारे समाज पर।
आज के कवि की दृष्टि नहीं पहुँचती
गगन मध्य में-
जहाँ एक बहुमंजिली इमारत से
लटका कोई हत भाग्य
लगाकर अपने जीवन की बाजी
बढ़ा रहा होता है चमक
उस भव्य भवन की,
उसके भय से धड़कते हृदय की
डूबती हुई धुन नहीं सुनाई पड़ती
आज के रचनाकार को।
वहाँ भी नहीं पहुँचती है उसकी दृष्टि
जहाँ सीवर लाइन के भीतर घुसा कोई एक
लड़ रहा होता है स्व भाग्य से
जिससे कि,
अपने ही मल-मूत्र की काली छाया
से बचे रहें हम,
और हमारी सभ्यता
करती रहे नफासत का ढोंग।
आज का कवि उसे भी अनदेखा
करता है-
जहाँ एक माँ
धारण कर स्वकुच्छि में
अनागत भविष्य के भारत को
(जो कि है अनंतआयामसंभवा)

स्वंय के भी अस्तित्व को
लगाकर दांव पर...
जीविका के लोभ में
जीवन से ही हो तटस्थ
सिर पर रखकर अपनी भूख का भार
चढ़ती चली जाती है बुलंदियाँ
देश की सफल प्रगति को
मुंह चिढ़ाती सी।
आज का कवि उस किसान को भी नहीं देख पाता,
जो वर्षपर्यंत चौथाई शरीर ढककर
खून पसीना एक करता है,
किंतु उसके हिस्से में आती है-
बीमारी, कुपोषण, दैनिक-अपमान,
असमय बुढ़ापा एवं मृत्यु।
आज का कवि... बुद्धिजीवी...
वकालत करता है-
कृषि आय पर कर की,
परंतु वह नहीं जानता कि,
किस प्रकार उत्पन्न होती है कृषि से आय,
वह नहीं जानता है कि
यह कर लगेगा-
किसान के रक्त पर... स्वेद पर...
अथवा उसके जीवन पर
(जो असमय समाप्त हो गया)
या उसकी जवानी पर (जो कभी आयी ही नहीं)।
आज का कवि नहीं देख पाता-
जेठ की भंयकर दुपहरी में
लू के तप्त झोंकों के विरुद्ध
संघर्श करते हुए एक रिक्शा चालक को
जो पग-दर-पग ठेलता है
अपने रिक्शे को
बुरे दिनों की भांति।
आज का कवि नहीं देख पाता
बेरोज़गारों की बाढ़ को
सड़को पर, प्लेटफार्मों पर...
या फिर दफ्तरों-दलालों के
चक्कर काटते...
वह निर्लिप्त रहता
उन अभागों की बढ़ती हुई
संख्या से...
ज्यों फैलती है महामारी किसी
मलिन बस्ती में
और सोता रहता है प्रशासन
कानों में अपने डालकर तेल
वह तब भी असंग रहता है
जब सैकड़ा अभागे नौजवान
डूब जाते हैं किसी नर्काकार
सेप्टिक टैंक में...
बिना देखे इस संसार को।
आज का कवि नहीं देखता-
उस वृद्ध कुली की लड़खड़ाती टांगो को,
फूलती सांसो को, और खिंची हुई रंगो को...
जो ढ़ोता है अपनी क्षमता से अधिक भार
किसी गुरुतर दायित्व की भांति।
आज का कवि वहाँ भी नहीं कर
पाता है दृष्टिपात-
जहाँ कोई एक
लटका होता है हत्था पकड़े
चलती हुई बस का
या रेल का
अथवा दौड़ रहा होता है-
जीवन का भी छोड़ कर मोह
जैसे कि कोई योद्धा
लड़ रहा हो धर्म युद्ध...
बहरे 'साहब' से याचना करते है
उसके नेत्र
विनती करती है उसकी वाणी...
कि बिक जाय एक 'नग'
पत्रिका, अखबार, गजक या मूंगफली...
और जीत जाए इस धर्मयुद्ध का एक मोर्चा
वह अति दुर्बल योद्धा।
आज के कवि को नहीं होता है सौंदर्य बोद्ध-
भयंकर धूप में
पसीने से तर-बतर
पत्थर तोड़ते कृष्काए मज़दूर में,
जो रत होता है अपने कार्य में
ज्यों कोई संगीतकार छेड़ रहा हो अपनी प्रियतम् धुन
अथवा
कोई साधक कर रहा हो कठोर साधना...
किन्तु,
उसकी उठती और गिरती हथौड़ी में
नहीं देख सकता सुंदर लय...
उस हथौड़ी की ठक-ठक में नहीं सुन सकता
पवित्र वीणा की मधुर सुर लहरियाँ...
आज का कवि।
उन तक तो पहुँचती ही नहीं उसकी दृष्टि
जो एक थैला लटकाए स्वस्कंध पर...
रहते हैं आमूल तटस्थ-
हर सुख-दुःख से-जीवन के,
स्वानुभूति का अवकाश ही नहीं
मिलता उन्हें-भौतिक सुखों...
इंद्रिय-विलास की बात ही क्या,
देश हित में-उड़ा देते हैं जो
अपना संपूर्ण जीवन
सिगरेट की एक फूंक की भांति
और समाप्त हो जाते हैं
अनाम से...
पानी पर उभरे एक बुलबुले की
भांति।
आज का कवि,
उसे भी नहीं देख सकता-
जो बंधा है अपनी ही खींची रेखाओं से,
जकड़ा है अपनी ही ज़ंजीरों से,
अपने ही बनाये घेरे
तोड़ नहीं सकता वह,
कर्म योगी हो या कर्मसंन्यासी...
उस तक दृष्टि ही नहीं पहुँचती-
किसी रचनाकार की,
रह जाता है वह-
अनाम, उपेक्षित एवं अवांक्षित सा।
आज के कवि की दृष्टि नहीं पहुँचती
है वहाँ भी,
जहाँ एक स्वभीरु करता है प्रयत्न-
ऊंचा उठने का...
सच्चा होने का...
अच्छा बनने का....
स्व के विस्तार को...
बढ़ता ही चला जाना, चाहता है वह...
आगे और आगे...
ऊपर और ऊपर...
जहाँ से दृष्टिगोचर हो सकें...
राम और रहीम,
ईसा और मूसा,
बुद्ध और महावीर...
कलियुगी प्रतिकर्शण,
उसकी अपनी ही माटी की खोट...
और भी गतिरोधक अनेक...
धराशायी करते हैं स्वप्न समस्त,
चल नहीं पाता वह दुनिया के संग...
और बन जाता है- त्रिशंकुनाना
देशों में, अनेंक नाम से।
आज के रचनाकार की दृष्टि
नहीं पहुँचती है- उस पाखण्ड तक,
जहाँ होता है दलित विमर्श-
प्रभु वर्ग के मध्य...
वातानुकूलित स्वच्छ कक्षो में,
जहाँ सर्व-धर्म-समन्वय पर
चिंतन होता है-
शराब-शबाब-कबाब के साथ,
जहाँ धर्मोत्थान की चिंता होती है
और बनती है रणनीति-
हत्या-बलात्कार-लूट-आगजनी
एवं दंगों की...
जहाँ शवों की भीत पर बनते हैं-
सत्ता के महल।
आज का कवि नतमस्तक है-
उन पिशाचों के सम्मुख
जो पीते हैं रक्त देश की जनता का
और बनते हैं- धर्मात्मा,
जो अपने राष्ट्रीय हितों को बेच-बेच कर
बन गये हैं- महानात्मा।
आज का कवि उसे भी
अनदेखा करता है-
जो प्रपंच-पाखण्ड से सत्ता
हथियाता है,
खुशहाली के वादे करके-
शांति के सपने दिखाकर...
बस्तियाँ जलाता है,
कहीं केशोच्छेद कराता है,
कहीं दाढ़ी बढ़ाता है...
रक्तपायीं वर्ग यह
'रक्त बीज' की भांति बढ़ता ही चला जाता है,
परंतु आज का रचनाकार सो रहा है, सोता चला जा रहा है,
यदि कभी वह जगता भी है-
एकाएक...
तो इन समाज-शत्रुओं की
स्तुतिगान करता है,
या फिर मंहगी शराब एवं पंच सितारा
होटल में डिनर लेकर
उसकी आत्मा पुनः
कोमा में चली जाती है,
यदि कभी किसी भाग्यहीन की आत्मा
सो नहीं पाती है
तो उसकी परिणति ऐसी होती है
कि स्वंय नियति भी आँख बंद कर लेती है...
यह देख-समझकर उसकी आत्मा
स्वतः सो जाती है।
आज के कवि की पीड़ा-
विशयाभाव नहीं है,
उसकी समस्या है-
विषयाधिक्य!
ऐसा नहीं कि ये मार्मिक
स्थल उसको चुभते नहीं...
वह चिंतन करता है, इन पर...गहन...
नेत्र बंद कर...
किन्तु
आँख बंद होते ही
कुछ चित्र टकराते हैं
उसके चित्त में-
रोटी और बेटी,
गाड़ी और बंगला,
सुन्दर पत्नी, कान्वेंटेड बच्चे...
सफदर हाशमी, शंकर गुहा नियोगी...
मुक्तिबोध, निराला और गांधी...
एकाएक घबरा जाता है वह...
स्वतः नेत्र खुल जाते हैं उसके
और चिंतन पर लग जाता है-
एक शाश्वत विराम...
और पुनः निकल पड़ता है
संसार-सागर में वह कवि-
'शोभित कर नवनीत लिए'


Rate this content
Log in