दूसरे पते पर लिखने का दर्द
दूसरे पते पर लिखने का दर्द
मैंने तुम्हें ख़त लिखा था, परदेसी भाई
लौट आया है
आपके या आपके परिवार के
ठिकाने पर न होने की इत्तेला लेकर।
यह ख़त
पहला नहीं, जो लौटा है
कई और भी लौट चुके हैं पहले
बस एक ही ख़बर लिऐ
कोई नहीं मिला ठिकाने पर , ताला बंद था।
ऐसे तो नहीं थे तुम, परदेसी भाई!
कितना नया है यह अनुभव मेरे लिऐ।
आज भी आँखों में बसा है तुम्हारा गाँव
गाँव का तुम्हारा घर, आँगन
आँगन के विशाल अखरोट-वृक्ष और आशीर्वादी मुद्रा में खड़ा चिनार भी और हाँ
चिनार के पास से ही
मचलती,कूदती-सी वह शरारती नदी,
दूर-दूर तक फैले तुम्हारे सेबों के बाग़ भी।
मेरी आँखों में ज्यों-का-त्यों बँधा है वह दृश्य-
तुमने उठा-उठाकर गोदे में मेरे बच्चों को
कहा था
लो तोड़ो, ढ़ेर सारे तोड़ो सेब, ये सब तुम्हारे हैं और मैदान से आऐ मेरे बच्चे
और वे ही नहीं, ख़ुद हम भी
कितनी आसानी से चढ़ गऐ थे
आसमान के कंधों पर।
क्या नाम था उसका शायद ...गुलाम..कुछ ऐसा ही
गुलाम भाई
जो तोड़ लाया था
कन्धे पर
ख़ुमानियों से भरा टहना ही--
कितने आग्रह से खिलाया था,
वापसी पर
छोड़ने भी आया था अनन्तनाग तक।
मुझे नहीं भूली हैं
रह-रहकर याद आती हें
वे तमाम बातें
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
अपने में संजोऐ
वे तमाम तमाम बातें
जिन्हें अक्सर हम
चश्मे के पास किया करते थे
वहीं तो ले आती थी भाभी
सिरचुट और कहवा भी।
पर तुम्हें लिखे अपने पत्रों की वापसी पर
अख़बार पढ़ते-पढ़ते
बेहद चौंक रहा हूँ मित्र!
करता रहा हूँ तसल्ली
हर बार
नोटबुक देखकर।
हर बार
यही तो दिखा है पता--
गाँव खरबरारी, पू.बुगाम, अनन्तनाग।
आज जब
पहली बार--एक तरह से पहली बार
आया है तुम्हारा ख़त
जम्मू की किसी कॉलोनी से
तो लग रहा हॆ
क्यों आया हॆ तुम्हारा ख़त
बुरी तरह भीगा हुआ, अटा हुआ कुछ-कुछ।
आखिर क्यों लिखा है तुमने
कि पता नहीं कभी
फिर हो भी सकेगा कि नहीं
तुम्हारा वही पता, वही ठिकाना
जिस पर
ख़त लिखने की आदत है मुझे।
बडा मुश्किल है न
बढ़ती हुई उम्र में, आदत का बदल देना और आदतें भी जबकि
हमारी बहुत अपनी होकर रही हों
जिन्हें याद किया हो, चूमा हो हमारे दोस्तों ने भी।
परदेसी भाई!
क्या याद है तुम्हें
मैंने पूछा था
कि कुछ लोग
क्यों बदलकर बोल रहे थे
अनन्तनाग का नाम--
तुम चुप रह गऐ थे,
इशारे से, चुप मुझे भी करा दिया था
खचाखच भरी बस में।
तुम्हारा पत बदल जाने का
मुझे दु:ख है पऱदेसी भाई
ठीक जैसे दु:ख होता है
माँ के साथ हुऐ
बलात्कार की ख़बर पाकर।
नहीं
कोई और शब्द चुनना होगा
दु:ख की जगह
कोई और
एक मजबूत शब्द
परदेसी भाई!
खैर
तुमने निमन्त्रण भेजा है बिटिया के ब्याह का
मैं महसूस कर सकता हूँ
कितना रोऐ होगे, कितना रोऐ होगे दोस्त
जब लिखना पड़ा होगा कोने पर
’कितने अरमान थे, बिटिया के ब्याह के, पर...’ और छोड़ दिया होगा वाक्य अधूरा ही।
मैं सोच सकता हूँ
तुम बेचैन हुऐ होगे
बार-बार समेटा होगा तुमने
ऊँगलियों और अँगूठों को
बार-बार
बार-बार।