जिंदगी निकल गयीं
जिंदगी निकल गयीं
वक्त ना बदलने का ही घमंड था,
जो हाथों से रेत जैसे फिसल गयी।
इंतजार करते-करते देखों आखिर,
जिंदगी बस यूँ ही निकल गयी।
सोचा कल जो होगा अच्छा होगा,
पर आज तो कुछ भी किया नहीं।
जिंदगी पर इल्जाम कैसे लगा दे,
कि उसने हमें कुछ भी दिया नहीं।
जब समय था तब समझ नहीं थी,
अब समझा तो कुछ हाथ न रहा।
समझौतों में ही उलझता रहा मैं,
उन रिश्तो का भी साथ ना रहा।
उम्र ने अपना कुछ हिसाब किया,
हाथ पैर भी अपने बस में नहीं रहे।
कुछ अनकही बातों का दौर था पर,
हम आखिर कहे तो किस से कहें।
उम्र बीत गयी सारी जिंदगी की,
कुछ लोगों का इंतजार करते करते।
आज मै एक कब्र में सोया हूं,
कुछ गैरों के कंधे पर चलते चलते।
जिंदगी निकल गयी इंतजार करते करते।