तुम और मैं
तुम और मैं
मैं और तुम
तुम और मैं
बस यूं ही बने रहे
मैं से तुम
तुम से मैं
तक का फासला
कुछ कम न था।
तुम पर्वत से
अड़े रहे अपने
झूठे अभिमान में
और मैं
हवा सी कोमल
उड़ती रही आसमान में
तुम कभी मैं
न बन पाए
और मैं कभी तुम
न बन पाई
बस ये छोटी सी
दूरी थी
जो तय करनी थी
हम दोनों को
तुम अड़े रहे
खोखले दिखावों पर
और मैं मरती रही
समाज की देहरी पर
याद नहीं
हमने कब हम
बनने की कोशिश की थी
हम तो बस
एक दूसरे की
कमियों को
गिनाने में ही लगे रहे
और
इस समाज ने
हम दोनों के लिए
एक दायरा तय कर दिया
स्त्री और पुरुष का
विचार और विमर्श का
दुख और हर्ष का
अनुभव और स्पर्श का
और आज भी हम दोनों
ये दूरी तय करने में
लगे हुए है
शाम से सहर तक
गाँव से नगर तक
जीत से हार तक
और न जाने
कब तक??