हज़ारों ख्वाहिशें
हज़ारों ख्वाहिशें
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जिस राहों को चुना ना गया उस रास्ते पर आज ये क़दम निकले
कहते हैं जिसकी कोई मंज़िल नहीं उसी सफ़र पे हम निकले।
तलाश-ए-गंज की खातिर छोड़ के हम अपने हरम निकले
पाना है हर हाल में उसे, ख़ाके हम ये कसम निकले।
फ़ौलाद बनाके जिगर, सी कर अपने जख्म निकले
निहत्ते नहीं साहेब साथ अपने लिए सच्चाई की कलम निकले।
जब इब्तिदा हुआ सफ़र दूर दिल के सारे भरम निकले
जब हुआ ख़तम लेके इश्क़-ए-इलाही इस दुनिया से वहम निकले।