के.बी.सी
के.बी.सी
हर रात के जैसे
आई एक और रात,
माँ बाप का तो न था सहारा,
पर चीकू वो था
जो रहता हरपल उसके साथ।
रहने को तो मानो
एक छत बमुश्किल,
और खाने पीने को तो थे
कई सारे आसपास वालो के ताने,
सिर्फ पैसो को करती है दुनिया सलाम,
यह राज़ थे उसने,
बखूबी पहचाने।
एक दिन फिर कुछ आया ऐसा,
गुस्से में कह दिया
घरवालों ने बुरा - भला,
कहा कि,
चले जाओ इस घर से
और खुद ही ढूंढो अपना रास्ता !
इस निर्दयी भरी चाल से
न डगमगाई उनकी दास्ताँ,
निकल पड़े फिर वे
एक सुमन साधक की ओर,
जेबे थी खाली
और नही था मंज़िल कोई पता !
न रहने को छत
और पेट भी खाली,
गुज़ारे तो कैसे गुज़ारे
रात ये पूरी ?
सौंप दिया तब,
रूपया एक लेकर के.बी.सी का नाम,
मगर आने वाली मुश्किलें
न थी कुछ आसान।
वफादारी का एक उदाहरण पेश किया
तब पालतू दोस्त ने उसके,
आधी रात को लाया
खाना न जाने कहाँँ से ?
मगर मुश्किलें न ले रही थीं
खत्म होने का नाम,
और कहानी में आया
एक नया अन्जाम !
निवाला भी नहीं छुआ था
कि हुआ पीछे से
कुछ सायो का आगमन,
डरा - धमकाकर किया उन्होंने
दो बेचारो को परेशान !
मारपीट के दौरन
बेचारा चिकू हुआ ज़ख्मी
दोस्त की वफादारी करते - करते डाली
खतरे में उसने अपनी जान !
मगर कहते हैं
हर रोज़ एक नया सवेरा होता है
किस्मत पलटी,
राह खुली और
पुकारा बच्चन सर ने उसका नाम !
मुस्कुराते हुए पूछा
बच्चन सर ने एक सवाल,
कि 'क्या किजिएगा इन रुपयों का आप ?'
बिना कोई सोच-विचार के
दिया उसने एक जवाब,
कहा कि,
'एक दोस्त है मेरा,
जो है बड़ा वफादार !
हमेशा मुझे उसकी
ज़रूरत पड़ती है,
मगर आज बारी है मेरी
कि दे सकूं मैं
उसका साथ !'
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच
बोले बच्चन सर,
'तो देखा दर्शकों आपने !
यहाँँ सिर्फ पैसे ही नहीं
और भी बहुत कुछ जीता जाता है...!'