ख़ामोशी
ख़ामोशी
रात की गहन खामोशी में
नींद आँखों से कोसों दूर
अचानक यादों का एक रेला
इन आँखों में चलचित्र
सा घूमा ...
१९८३ का वो आतंकी माहौल
और ''पापा'' का...आतंकियों की गोलियों से
उधड़ा शरीर,
मौत के तीन दिन बाद
मिली लाश में, आँखें नहीं...
चेहरे पर आँखों की जगह...
ख़ाली गड्ढे (माँस के लोथड़े) थे वहाँ
शरीर बोरी की तरह सिला हुआ
मेरे साथ-साथ
समस्त परिवार को विचलित कर गया था ये मंज़र...
श्रद्धांजलि में उमड़ा जन-समूह देख कर भी
आँखों से ना बहे आँसू
पर,
मन कठोर हो गया...
एक हादसे से छिन गया
हमारा सारा बचपन
अभी, सदमे से उबरे भी नहीं थे कि
दंगों से स्कूल बंद... दुकानें बंद
घर में कैद हो गया हमारा बचपन
माँ के ना थमने वाले आंसू
दस साल के छोटे भाई को बस
एक बार बचा लेने की भरपूर कोशिश
अहम हो गई, उस वक़्त...
रिश्तेदारों ने मुँह मोड़ लिया
अब तो सबसे, विश्वास भी डगमगा गया,
एक ही पल में
पंखों की गति थम गई,
हम सबकी ज़िन्दगी बदल गई
ज़िन्दगी फिर भी गति से चलती रही
ये सुन कर भी कि...
मोर नाचते हुए भी रोता है
हंस मरते हुए भी गाता है
ये ही इस जिन्दगी का फलसफ़ा है
दुखों वाली रात नींद नहीं आती
फिर भी...
मैंने करवट बदली...
रात अभी भी गहन थी
और ना जाने कितनी लम्बी...
ये यादों की किताब है
ना जाने कितने ही सालों तक
''पापा'' की एक नई याद लेके
आती रही...
जिससे, हर याद से एक
एक किस्सा... कहानी,
दिलों-दिमाग पर अपना कब्ज़ा जमाती रही है आज तक।।