ऐ मासूम
ऐ मासूम
तख़्त-ताज़ों के मंज़र तो कई और भी हैं
क्यूँ इतना रुतबा ज़ाया किया
जी ले ज़रा सी ज़िंदगी ऐ मासूम
क्यूँ रब, इश्क़ और मुहब्बत से किनारा किया।
रुसवाइयों को भुलाने का ये कैसा आग़ाज़?
की दिलों को बेगाना, ज़ार ज़ार कर लिया
जी ले ज़रा सी ज़िंदगी ऐ मासूम ...
सामानों के ज़ख़ीरे, हुकूमतों कि कवायदों के
ये कैसे ख़ालिस मरीज़?
की आशिके सोहबतों का जनाज़ा निकल गया
जी ले ज़रा सी ज़िंदगी ऐ मासूम ...
नूर है, शबाब... बहारे इश्क़ भी
बंदिशों के रखवालदारों ने हुस्न को तल्ख़, बेबस...जर्जर कर दिया
जी ले ज़रा सी ज़िंदगी ऐ मासूम ...
ज़ोर आजमाइशों की सियासतें गोया क्या कम हैं
जो हुनर और दिमागदारों के बाज़ार में
बदनसीब ग़रीबों को गले लगाना भुला दिया
जी ले ज़रा सी ज़िंदगी ऐ मासूम
क्यूँ रब के बेइंतहा ख़ज़ानों से किनारा किया।