"दुआ "
"दुआ "
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बैठा था ख़ामोश
घुटनों पे शीश रख
चेहरे को छुपाये हुऐ
अपनी देहरी पर
भावनाओं के अंतरयुद्ध से जूझता
ख़ुद की परछाई को ताकता
और प्रश्न पूछता
क्या बचा है मेरे लिऐ ?
मार्ग कोई तो बता जहाँ मिले ज़िंदगी
ख़ुदा की बन्दगी
राह कोई बता
प्रवेश करूँ घर में या मैं जोगी हों जाऊँ
मेरी परछाई मुझे देने लग गई दुआ
मत हो इतना बैचैन
कट जाऐगी ये भी रैन
होश थोड़ा सा रख दुआओं के सहारे
बहुत जीते जो थे हारे
जीत करेगी वरण स्वयं ही जो उसके क़ाबिल होगा
थककर बैठा क्यों है उठ चल थककर क्या हासिल होगा
इन्हीं दुआओं के सहारे चल रहा हूँ आज भी
और चलता रहूँगा अनवरत
अपने अंत तक
- राहुल कुमार शर्मा "भास्कर "