मजबूरियों की कब्र
मजबूरियों की कब्र
ना जाने कितने ही ख़्वाब मजबूरियों की कब्र में दफ़न हो जाते हैं
आंसू बनके बहते फिर तकियों पर और हल्के से मन हो जाते हैं।
कला और लगन होने के बावजूद भी जब मौका नहीं मिलता,
आशाओं की पोटली में ना जाने कितने ही उलझन[1] हो जाते हैं।
अधूरे अरमान दिल के कोनों में इतनी खलाएं[2] पैदा कर देते,
कि तनहाइयों की महफ़िल में सिसकियों के जश्न हो जाते हैं।
जब हसरतें[3] जलतीं तब ज़हन[4] में ऐसा काला धुआं उठता,
कि तस्ववुर[5] के आशियाने में धुंधले सब चिलमन हो जाते हैं।
हर शख़्स को कोई ना कोई चाहिए अपनी कसक[6] बताने को,
परिंदों बिना शज्जर और भंवरों बिना सूने-सूने चमन हो जाते हैं।
अशीश यहां इन्सान की नहीं सिर्फ़ उसके रुतबे[7] की कदर होती,
बुरा वक्त आने पर अच्छे दोस्त भी कभी-कभी दुश्मन हो जाते हैं।
[1] अव्यवस्था
[2] अंतराल
[3] तृष्णा
[4] समझदारी
[5] कल्पना
[6] दर्द
[7] श्रेणी