मैं...एक कवि
मैं...एक कवि
न कोई वर्ग, न जाति, न सीमाओं को मैं जानू
गगन की छत तले फैली धरा को अपना घर मानू
रखा क्या नाम में मेरे, रखा क्या नाम में तेरे
सदाएं दिल की सुनके ही मैं खुशबू रूह की पहचानू ।
जो धुन कुदरत के छीटों में परस्पर मुस्कुराती है
वो मेरी कल्पनाओं को दुआ बन कर सजाती है
समुन्दर की लचीली लट है उलझी इस हथेली में
पवन भी मेरे माथे पर तिलक सा खींच जाती है
हरी और नीली लहरों का ये दुनिया दिव्य संगम है,
मैं इसमें डूब जाता हूँ, ये मुझमे डूब जाती है।
कभी सीने में सागर है, कभी आँखों में पानी है
है जीवन क्या, मचलती भावनाओं की रवानी है
खिले जज़बातों की डाली को सींचे जब कलम मेरी
तो स्याही बन सुधा रचती निराली इक कहानी है
मैं जिंदा था, मैं जिंदा हूँ, अमर थल का परिंदा हूँ,
चर्म तेरी जवानी है, मर्म मेरी जवानी है।