नारी-छाया
नारी-छाया
हे नर! अभिमान क्यूँ करता है, तू कुछ भी कर नहीं सकता
तू केवल उड़ेल ही सकता है, या फिर बिखेर ही सकता है।
बिन नारी को साथ लिए, तुझ से नर कुछ नहीं होता
ये नारी है नारी शक्ति, पहचान इसे मत गुमान तू कर
ये तुझे बांध भी सकती है, ये तुझे रोक भी सकती है
और तुझ से बिखर गये रस को, ये आँचल में संजो भी सकती है
फिर नर अभिमान क्यूँ करता है, तू कुछ भी कर नहीं सकता
तू केवल उड़ेल ही सकता है, या फिर बिखेर ही सकता है।
मैं बीते अपने कल को, तुम से बाँटने आया हूँ
जब बालक था खेला- कूदा, मुझे कोई खेल नहीं भाया
जब हाथ दिया गिल्ली-डंडा, उस का भी भेद नहीं पाया
नजर पड़ी जब धरा-गिच्ची, क्या है खेल समझ आया
फिर गिच्ची-गिल्ली मेल भयी, यूँ नारी अंग पड़ी छाया
इस नारी के उपजे अंग से ही, खेल मैं पूरा कर पाया
हे नर ! अभिमान क्यूँ करता है, तू कुछ भी कर नहीं सकता,
तू केवल उड़ेल ही सकता है, या फिर बिखेर ही सकता है।
हे नर ! तू कुछ भी कर ले, तेरा उद्दार नहीं होगा
तू होगा इस पार मगर, नदिया उस पार नहीं होगा
तू चापू धर भी सकता है, पानी खे भी सकता है
पर उस पार तुझे जाने को, नैया भी चाहिए होगी
ये नैया भी इक नारी है, जो नारी-चिन्ह रूप धरती है
नदिया पार लगाने को, तुझ चापू संग ये चलती है
हे नर ! अभिमान क्यूँ करता है, तू कुछ भी कर नहीं सकता
तू केवल उड़ेल ही सकता है, या फिर बिखेर ही सकता है।
जगत का सारा गोरख-धंधा, निर्भर है नारी-जनांगी
सुई हो या पवन खटोला, सब नारी से ही है जन्मी
है नर ! तू भी दूर नहीं इससे, ये तेरी भी है जननी
फिर क्यूँ अभिमान तू करता है, तू कुछ भी कर नहीं सकता
तू केवल, उड़ेल ही सकता है, या फिर बिखेर ही सकता है।