तुम्हारे मन से
तुम्हारे मन से
हाँ ! हाँ !
जानती हूँ
नही है इलाज
तुम्हारे दर्द का
मेरे पास...
पर, फिर भी
तुम मुझसे कुछ भी
छुपाया न करो
क्योंकि
क्योंकि मैं पढ़ लेती हूँ,
तुम्हें...
बहुत दूर होकर भी
तुमने ही तो कहा था कि
कभी-कभी मुझे भी
पढ़ लिया करो...
हाँ अब मैं
पढ़ती हूँ हर रोज
तुम्हारे वो एहसास
जो मेरे लिए नहीं होते !
तुम्हारा वो बातों-बातो में
मुझसे इकरार,
जो सच में....
मेरे लिए नहीं होता।
यहाँ तक कि...
तुम्हारा गुस्सा भी
मेरे लिए नहीं होता।
तुम्हारे ख़्वाबों की
उस कोमल कली को
जरा भी नहीं है.....
हाँ, सच में नहीं है,
तुम्हारी परवाह !
जिसका स्पर्श
पाना चाहते हो
हाँ... सच में..
तुम चाहते हो कि
तुम्हारे एक स्पर्श से
वो खिलकर फूल बन जाए और...
और तुम उसकी खुशबू में
खुद को मदहोश कर जाओ
पर नहीं होते
तुम्हारे सुनहरे स्वप्न
मुकम्मल कभी भी.....
न जाने क्यों ?
घुटते हैं, विचारों में !
रिसते हैं, तुम्हारी रगों में !
और...फिर !,
तुम मौन हो जाते हो।
हाँ, सच ही तो है
मैं पूछती हूँ कि....
तुम कैसे हो ?
और तुम....
कहते हो कि
मैं ठीक हूँ।
फिर मैं समझ जाती हूँ कि
तुम सच में
ठीक नहीं हो।
यह जीवन का सत्य है,
जो पास होता,
वो अपना नहीं होता,
और जो अपना होता,
वो.. पास नही होता।
कुछ रिश्ते,
टूटने के लिए
जूड़ते हैं।
कुछ साथ,
छूटने के लिए
मिलते हैं।
हाँ.....सच में,,
और नहीं तो क्या ?
मैं झूठ नहीं बोलती।
तुम...भी मत बोलो !
मुझसे नहीं तो कम से कम
उस परमात्मा से तो,
कह लो !
अपनी परेशानी !
क्योंकि....
उसके पास है
हर मर्ज़ का
मुकम्मल इलाज।