अंतराल..
अंतराल..
देह जली तो राख हुई
मन जला तो भाप हुआ
और अंगारों की नदी बन
ये छल मेरा बहता गया।
मैं इतनी परत बन गई
तुम्हारे छालों में घुल गई,
यकीन करो,
ज़माने की आग में खुद को जलाए
जलती लौ-सी बन गई।
राह हर तरह की
बिना इजाज़त
तेरी ओर चलते गए
क़दम कहाँ सुनते हैं मेरी
उठकर तेरे दर पे खड़े रहे।
सो कर उठा है
जिगर मेरा अब
लहू से सींच दूँ ज़रा
आँसू की महक भर ना जाए
मखमली घावों को
चूम लूँ ज़रा।
साँझ से पहले
दीवार पर परछाई ना ढूँढना तुम
मैं पगडंडी पर भागती जाऊँगी
तुम्हे वहीं मिलूंगी मैं
जहाँ रात की डोली सजती होगी।
ज़रूरी है ये भी कहना
जहाँ मौत भी मौन है, वहाँ
तुम खामोशी बरतना
कुछ देर मन को सुलाकर
मुझे चाँदनी में अदृश्य
हो जाने देना।