मेरा ज़िक्र
मेरा ज़िक्र
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वो मेरा नाम अपनी जुबां से न ले भी तो क्या
उनकी खामोशियों ज़रूर मेरा ज़िक्र होता है
ज़ख्मों की नुमाईश भी वो हंसकर करता है
इसीलिये तो अक्सर तन्हाइयों में वो रोता है
अब कहाँ है सवाल उनको जीतने हारने का
जब से वो रगो से बहकर रूह में खो जाता है
वजूद दर्द ए ईश्क को कभी न समझा ज़माना
मेरा वाक़या भी इसीलिये बदनाम होता है
"परम" हौसले अपने परो में रक्खा करो तुम
सारा आसमान फिर उसी"पागल"का होता है