अर्पण कुमार की 'स्त्री-नदी' कविता श्रृंखला में बारह कविताएँ
अर्पण कुमार की 'स्त्री-नदी' कविता श्रृंखला में बारह कविताएँ
स्त्री-नदी पर अर्पण कुमार की कविताएँ ..
स्त्री-नदी
अर्पण कुमार \
एक
कवि सृजनरत है
और नदी उनींदी लेटी है
अपनी बायीं करवट
कवि के अभिमुख
ठीक उसके संपार्श्व में
नदी का अलसाया
और क्लांत सौंदर्य
उतर रहा है कविता में
नदी के बराबर
एक और नदी
उतार रहा है
कवि का भागीरथ
दो
नदी की घिसटती,
विहँसती आँखों को
थाम लिया मैंने
दूर ही से
फैलाकर अपना दामन अदृश्य
तट के इस तरफ
नदी चली गई वापस
तट के उस तरफ
अपनी दुनिया में
छोड़कर तरलता
मेरी दुनिया में
तीन
नदी सूख रही है
अपनी बढ़ती उम्र की
छोटी-बड़ी परेशानियों को
वहन करती हुई
नदी सूख रही है
अपनी बढ़ती उम्र की
छोटी-बड़ी परेशानियों को
वहन करती हुई
नदी सूख रही है
अपनी अंतःव्याप्त
व्याधियों से भी
जीवन के उत्तरार्द्ध में
जी रही नदी
जानती है
अपने सुनहरे क्रमबद्ध वसंत के
अनिवार्य संघाती क्षरण के बारे में
यौवन के ढलान पर
खोती अपनी सुडौलता
नदी सूख रही है
दूसरी नदियों की तरह
सूखी हुई नदी
बहती है मगर
इतिहास के पन्नों में
स्मृतियों के अंतर्स्थलों पर
और कविता के अनुभूत,
पुनर्सृजित घाटों से
सूखी हुई नदी
कब सूखती है पूरी तरह !!
चार
इस पार मैं था
उस पार नदी थी
दोनों एक-दूसरे से
मिलने को विह्वल
....................
बीच में सड़क थी
कोलतार से
ढकी-पुती, खूब चिकनी
भागते जीवन का
तेज, हिंसक और
बदहवास ट्रैफिक
जारी था जिसपर
अनवरत, अनिमिष
दोनों के नियंत्रण से बाहर
कहने को
सड़क की चौड़ाई भर
रास्ता तय करना था
मगर वह फ़ासला
सड़क की तरह लंबा
और पेंच-ओ-ख़म से
भरा था
.....
पाँच
नदी मुझे
रोकती थी
ज़्यादा भावुक होने से
निर्रथक भटकने से
नदी इस तरह
रोकना चाहती थी
अपने प्रवाह की
क्षीप्रता और आतुरता को
बहाव की आवेगमयता
और लचकता की सहज रौ में
किसी अप्रत्याशित
मोड़ के आ जाने से
नदी संशकित रहती थी
हर पल
हर दम
नदी बहती थी
और अपने रास्ते के
किसी संभाव्य मोड़ की
जटीलताओं से
अनजान नहीं थी
छह
एक स्त्री
ढलकर नदी के प्रतीक में
अपने इतने पाठ
बना सकती है
आश्चर्य होता है
एक स्त्री कविता में
इतने घाटों से
उतर सकती है
आश्चर्य होता है
नदी के सामने भर
कर देने से
एक स्त्री के इतने
चेहरे
प्रतिबिंबित हो सकते हैं
आश्चर्य होता है
एक स्त्री
इतना गहरा उतर
कवि के अंदर
उत्खनित कर सकती है
इतनी नदियाँ
आश्चर्य होता है
आश्चर्य होता है कि
एक स्त्री का प्रेम
प्रतिरूप-प्रेम बन जाता है
पृथ्वी की समस्त
नदियों का,
एक कवि की कविता
प्रतिनिधि-उद्गार बन जाती है
दुनिया के समस्त प्रेमियों का
सात
कविताएँ लिख-लिखकर
नदी पर
मेरा कवि ऊब चुका है
मेरा प्रेमी मगर
रमता है आज भी
नदी के स्मृति-आलिंगन में
अपने एकांतिक पलों में
ख़ुशगवार मौसम के
सतरंगी झोंकों पर
और ख़ामोश शैतानियों की
इंद्रधनुषी हलचलों पर
आठ
कविता ने जीवन जीना
और नदी ने प्रेम
करना सिखाया
कविता में नदी आई
जीवन में प्रेम आया
नौ
नदी अकेली
नहीं चाहिए
और चीज़ों के साथ
नदी भी चाहिए
और चीज़ें मिल जाती हैं
नदी आगे निकल जाती है
या कभी पीछे छूट जाती है
और चीजें साथ चलती है
नदी के सिवा
दस
मैं सहम जाता हूँ
और वह काँप जाती है
जब भी मिलना हुआ
नदी से
ऐसा ही हुआ
ग्यारह
नहीं चाहिए
नदी की देह
नदी की उपस्थिति
या कि नदी की ध्वनि
नहीं चाहिए मुझे
कुछ भी नदी से
मगर सच पूछो तो
सब कुछ चाहिए नदी का
बारह
मैं धूप के टुकड़ों से
कभी अपनी
भूख मिटा रहा था
यातना भरे
उन दिनों में
नदी तब
मेरी प्यास का
खास ध्यान रख रही थी
.........