अनकही
अनकही
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कभी केवल लब हिले
कुछ कहा ही नहीं
कभी कुछ कहना चाहा
लेकिन कुछ कहा ही नहीं
कभी कुछ कहा
लेकिन आगे फिर कहा नहीं
कभी कुछ कहा
लेकिन लगा कुछ कहा ही नहीं
कभी तेरी आँखों के आमंत्रण ने कुछ कहा
लेकिन मैं झिझक गया
कभी तेरी बाहों के स्पंदन ने कुछ कहा
लेकिन मैं सिमट गया
चलने के लिए तूने हाथ बढ़ाकर कुछ कहा
मेरे कदमो ने सुना ही नहीं
कभी तू जिंदगी बन मुस्करा कर कुछ कहती रही
मैं बिना सुने दर्द की तरह घसीटता रहा