जब माँ थीं
जब माँ थीं
बजती थीं पूजा की घंटियाँ
होता था सबेरा |
अब माँ नहीं हैं
नहीं हुआ है युगों से सबेरा |
जब माँ थीं
होती थी रात
मै सोती थी माँ की साड़ी पकड़कर |
अब माँ नहीं हैं
नहीं हुई है युगों से रात |
खनकता रहता है
सूनापन मेरे भीतर
पहाड़ – सा बोझ लिए
तरसते रहते हैं
उस घर के कोने
जहाँ माँ थी |
अब मैं एकांत में
जोर से बुलाती हूँ ,
'माँ...!'
और सुनती हूँ वह ध्वनि
जो दीवार से टकराकर
लौट आती है फिर मेरे पास
काँप जाता है मेरा शरीर
अपने ही मुख से बोले गये
'माँ' शब्द को सुनकर |
अब माँ नहीं हैं
अब हैं माँ की किताबे
माँ की चटाई
माँ का चश्मा |
मैं, माँ की चटाई बिछाकर
माँ का चश्मा लगाती हूँ
और माँ की किताबों में
खोजती हूँ माँँ...!