पैसों का खेल
पैसों का खेल
क्या है ज़िन्दगी ...
जूझना या जीना..
पैसों का सब खेल तमाशा
रात दिन है दौड़े जाता
पैसों के पीछे पागल सा
आगे दलदल दिख ना पाता
कितनी प्यारी गेम है
माया की रची रचाई..
कोई कोई हौसलों की
परवाज़ लिये
पाता है फ़तेह
तो कोई हार बैठ जाता है
किसी के हिस्से आती है
ज़िन्दगी की सारी रंगीनियां
तो किसी को
रात सा तमस....
बीच में कोई हसरतों का
थामें दामन जूझता है
मस्ती में अपनी जीये जाता है
जो भी दे ज़िन्दगी
रोजमर्रा को अपनाकर
कहाँ मिलती है तसव्वुर में बसी
ज़िन्दगी....
सपनो की माला पिरोये इंसान
उलझता रहता है
टूटती है माला फ़िर पिरोता है
बस उसी जद्दोजहद में
ढल जाती है
ज़िन्दगी की शाम
होता है पूरा खेल तमाम
सदियाँ बीत गई
कहाँ जाना पाया है कोई
ज़िन्दगी जूझना है
या जीना।