पहाड़ी नौनी के लिए एक विदा गीत
पहाड़ी नौनी के लिए एक विदा गीत
वह दिल्ली छोड़ रही है
मुंबई जाएगी
अपने पुराने प्रेमी साथ
शादी बाद,
उसे ख़ुश होना चाहिए
कॉलेज की उसकी ‘नादानी’
(प्रेम कमोबेश एक नादानी ही होता है)
कोई भूल नहीं ठहरी
वह एक सुखद परिणति में
सहज ज़िम्मेदारी बन गई
पहाड़ी नौनी चली आई
गढ़वाल से दिल्ली
अपने प्रेमी पीछे
चली जाएगी दिल्ली से मुंबई
अपने पिया संग
पिया जो प्रेमी था
लड़की!
तू ख़ुशनसीब है
तेरा प्रेमी छलिया नहीं ठहरा
‘विज्ञापन’ की चमक दमक
रंगों बीच जाकर भी
सपने देखने-दिखाने की
कला में माहिर हो कर भी
नहीं छोड़ी उसने
नींद में पकड़ी तेरी बाजू
और तूने भी तो
होम किया सब कुछ अपना
उसकी ख़ातिर
लड़की ख़ुश नहीं है
बचे हैं अभी दो महीने
दिल्ली छोड़ने को
मगर दिख रहा है उसे सब कुछ
आबो हवा यहाँ की
लोग-बाग यहाँ के
छूटते हुए
तेजी से
अभी से।
दिल्ली,
जहाँ वह छुटपन से आ रही थी
जहाँ उसे भरपूर छूट थी
मनमर्ज़ी से आगे बढ़ने की
काम करने की
और ख़ुश रहने की,
दिल्ली
जिसे उसने ख़ूब रौंदा
अपने छोटे पैरों से
भटकती हुई ख़ुद भी
और जब भी थकी पसर गई
उसकी गोद में निश्चिंत हो
जैसे हठीली कोई बच्ची हो
दिल्ली जहाँ वह हमसे मिली
घबराई हुई मगर खिली-खिली
सहपाठी थे हम
दिल्ली जिसे अब छोड़ रही है वह
और जहाँ छूट रहे हैं हम उससे
जानती है वह
इस हाईटेक पीरियड में
पेरिस हो या दुबई
दिल्ली हो या मुंबई
नहीं है मतलब कोई
भौगोलिक दूरियों का
और पाटा जा सकता है उसे
पल भर में
किसी भी कोने से विश्व के
मगर जीवन की डगर अपने आप में
एक मैराथन है ऐसा
जहाँ छूटता है अतीत
तीव्रता से
निर्ममता से
अनिवार्यतः
लड़की!
जब तेरी याद आएगी
हम किसे छेड़ेंगे बेपरवाही में
इतने हक़ से
अपनी परेशानी भूलने के लिए
किसे परेशान करेंगे घंटों फोन पर
लड़की!
क्यों नहीं छोड़ जाती अपने पीछे
तू अपना कोई क्लोन!
पर्याप्त व्यवहारिक, मेधावी
और स्वावलंबी है वह
मगर कहीं कोई गढ़वाल
कोई क़स्बा मौज़ूद है उसके अंदर
जो उसे भयभीत नहीं
मगर अकेला करता है
मायानगरी ‘मुंबई’ में,
किसी स्थानीय पूर्वाग्रह से परे
दिल्ली उसका अपना ही परिवेश था
जहाँ एक लाडली की तरह
ज़िद में, मान में
बहुधा अपनी पहचान के निर्माण में
भाग आती थी वह जब कभी
एक स्वच्छंद विहार हेतु
शहर से थोड़ा दूर आकर
प्रमाणित कर लेती थी वह
अपना सामर्थ्य भली प्रकार
मगर कोसों दूर जाकर
समुद्र के तट पर
उसे सीखने ही होंगे
तैराकी के कई गुर
अपनी उत्तरजीविता के लिए,
महासागर से भयावह
कई बार महानगर होता है
जहाँ डूबे ‘टाइटैनिक’ का पता
नहीं लगा पाते
दक्ष गोताखोरों के सैंकड़ों दल
मिलकर एक साथ भी
अरसे तक
खेल खेल में देहरी लाँघती आई लड़की!
अब तू बहुत दूर जा चुकी है
घर से
ख़ुद से भी
बढ़ती हुई विकास-धुरी पर
सुख में
उड़ान भरती
अनंत नील-गगन में
हिफ़ाज़त से अब तक
लड़की सुनो!
डरा नहीं रहा मैं तुम्हें
बस लिख रहा हूँ तेरे लिए
एक विदा गीत
जिसमें हिदायतें और शुभकामनाएँ
दोनों हैं एक साथ
तेरी नई शुरुआत के लिए
शुभ-लाभ के बंदनवार से सजे
जीवन द्वार में तेरे मंगलमय प्रवेश हेतु।
(पहाड़ी अंचल में ‘लड़की’ को नौनी कहा जाता है।)
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