मोहोब्बत जमीं की !
मोहोब्बत जमीं की !
क्यों भागती-दौड़ती सी ज़िन्दगी रुकी हुई है,
क्या ये मेरे लिए ही रुकी हुई है;
परछाई को तो कब का विदा कर दिया गया है,
फिर देह क्यों अब तक वहीं रुकी हुई है;
आँखों से नाउम्मीद होकर के ख़्वाबों की ताबीर,
पलकों की नम कोरों पर रुकी हुई है;
बारिशों का लिहाज़ करती है ये हवाएं,
वो यूँ ही तो नहीं रुकी हुई है;
मैं आने वाले कल से मिल आया हूँ,
दुनिया को देखो यहीं रुकी हुई है;
इश्क़ आसमां का होकर भी जमीं पर उतर आया है,
मोहब्बत जमीं की होकर भी दहलीज़ के अंदर रुकी हुई है !