इंसान होने के मायने
इंसान होने के मायने
ना जाने कब इंसान अपने मायने से मिल पायेगा,
लालच व महत्वाकांक्षा ने दूरी इतनी बढ़ा दी, क्या कभी ये रास्ता तय कर पायेगा ?
निश्चलता वो बच्चों वाली,
वो निर्मलता, वो मस्ताली,
प्रकृति भी झूम रही हो मतवाली,
चहके जड़, चहके चेतन, चहके हर पत्ता–पत्ता, डाली–डाली
अनमोल हैं खुशियाँ बचपन की,
इनको ना जरूरत है भौतिकता के बाजारू सामानों की,
धरती से आकाश तलक है, परचम इनके सपनो के उड़ानों की,
ना कोई डर, ना तनाव, ना दबाब, ना कोई बाधा, इन्हें आदत है जीवन धारा में बह जाने की
क्या इंसान सच्चाई को स्वीकार कर पायेगा,
पूंजीवाद व तकनीक के जाल से इतर अपने वजूद से मिल पायेगा,
कब, ना जाने कब, इन्सान अपने मायने से मिल पायेगा?