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Harsh Alekar

Abstract

4.4  

Harsh Alekar

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कर्तव्य की विडंबना

कर्तव्य की विडंबना

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सुना है तुम्हे उबाहट सी होने लगी है,

घर में रहने में अब मज़ा नहीं आता ?

दिन नहीं गुजरते, वक़्त नहीं कटता,

कुछ करने को नहीं, बैठे बैठे कुछ नहीं सूझता ?


सोचा है जिसकी वजह से इस वक्त में सुरक्षित हो

उसने कितने दिनों से यह घर ना सुना ना देखा ?

क्या उसे उबाहट ना हुई होगी,

कड़ी धूप में वक्त काट रहा है,


अपने साथियों से अपनों को ना मिलने का दुख बाट रहा है,

शायद फर्क सिर्फ इतना है कि

आप घर के अंदर और वोह घर के बाहर जी रहा है,

या शायद मौत को सर पे सवार किए देश की सेवा कर रहा है ।


लक्ष्मण रेखा सी लगती है ना घर की सीमाएं,

सोचा है देश की सीमाओं में कोई रावण पैर ना रख सके

उसके लिए भी आपके घर आपके देश का लक्ष्मण खड़ा है,

उसको तो यह नीरसता नहीं सताती कभी,


उसने तो कभी विरक्ता ना दिखलाई कभी,

ऋतुएं बदली, साल बदले सरकार बदली,

उसने तो अपनी जगह ना बदली कभी ।


खाने में मन नहीं लग रहा, अरुचि सी हो रही है

रोज एक ही खाना खा के आज-कल ?

सुना है pizza और burger बहुत याद आ रहे है आज-कल ?

सोचा है यह जो खा रहे हो उसे उगाने

वालो की परस्थिति क्या हो रही होगी ?


ना कोई खरीदार मिल रहा है ना ही कोई

मोल रहा है उसके फसल का,

फिर भी बिज बो रहा है और वेदना सेह रहा है अपने हल का,

उसका तो पूरा जीवन आपके पेट के संतोष में बीत जाएगा

और आपका कह रहे हो कि सिर्फ

कुछ दिनों के लिए आपसे इतना ना हो पाएगा ?


घर में बैठने से अब संताप हो रहा है ?

मास्क पहने अब यंत्रणा सा प्रतीत हो रहा है ?

एक वो भी है जो पूरा दिन प्लास्टिक का सूट पहने,

24 घंटे मास्क पहने उपचार कर रहे है,


उनकी व्यथा को समझ सकते हो ?

उनके जितना कष्ट सहन कर सकते हो ?

अपनों से दूर रहने की पीड़ा सहन कर सकते हो ?

 किसी के प्राणों के लिए खुद को मौत के मुंह में झोंक सकते हो ?


इन में से एक की भी रुदना नहीं सेह पाओगे,

इन में से एक का भी जीवन क्षण भर भी नहीं जी पाओगे,

गर ज़िंदा रहे तो अपनों को प्रेम व्यक्त करोगे ना ?

गर जो मर गए तो अपनी भूल भी नहीं सुधार पाओगे।


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