कितनी अग्नि परीक्षा अभी बाकी हैं
कितनी अग्नि परीक्षा अभी बाकी हैं
युग आते हैं, आकर चले जाते हैं
आबरू को, बेआबरू करने में छले जाते हैं
सिर्फ कलयुग ही क्यों बदनाम है
सतयुग में कर्मों की दास्तां, कहाँ सदकाम हैं।
भरी सभा में निर्वस्त्र हुई एक नारी थी
कैसी विडंबना, मजबूरी और लाचारी थी
मौन सारे महारथी, सभा के महानरेश थे
वासना के अँधों ने नोचे, झपटे उसके खुले केश थे।
द्रोपदी चीरहरण का घाव बड़ा गहरा था
बैठा उस पर किस-किस का पहरा था
द्वापर युग ने इस वारदात को दिया अंजाम था
इतिहास ने इस कृत्य को लज्जा दिया नाम था।
त्रेतायुग भी इस कलंक से कहाँ छूटा था
कामुक पिपासी रावण, नारी देह का भूखा था
स्वर्ण मृग की ओट में, हरी उसने नारी थी
हवस की भेंट में बली चढ़ाई उसने लंका सारी थी।
धर्मग्रंथों के पन्नों पर इतिहास रचे जाते हैं
निर्वस्त्र हुई नारी, पर तंज परिहास के कसे जाते हैं
मर्यादाओं की अनुपालना में महाभारत रचे जाते हैं
छोड़कर उन्हीं मर्यादाओं के साथ, प्रपंच सारे रचे जाते हैं।
नारी चाहे हो महारानी या खूब लड़े मर्दानी
पुरोधा हो या हो गुणी, ज्ञानी-ध्यानी
चमड़ी का कायल-घायल यह सभ्य समाज
कितने ग्रंथों में लिखेगा आहत नारी की जुबानी।
धरती माता के गर्भ ग्रह के किस तहखाने में
नारी तेरी सुरक्षा है
यहाँ तो देवियों के अवतारों तक को भी
इस कामुकता के पुजारी ने कहाँ बक्शा है।
मदद की बख्शीश में, दिया कोठा और बाजार हैं
सहानुभूति के मरहम में दिया, सुर्खियाँ बटोरता अखबार है
ममता की मारी, प्रसव पीड़ा से अभी-अभी जागी हैं
मेरी ही कोख से जनने वाले, कितनी अग्नि परीक्षा लेनी अभी बाकी है।