और थोड़ा जी लूँ
और थोड़ा जी लूँ
जिंदगी के सारे ग़मों को ऐसे हि पी लूँ
सोचता हूँ आज मैं और थोड़ा जी लूँ ...
चाहत को बंद किया दिल के उस कमरे में
हंसी को छोड़ दिया जीने कि दौड़ में
चमकिली नुमाईश को पल भर में छोड़ दूँ
सोचता हूँ आज मैं और थोड़ा जी लूँ ...
जिंदगी गवां रहा हूं कागज बटोरने में
अपनों को भूला रहा हूं गैरों कि महफ़िल में
समेटे उन पत्तों को मैं यूँही उछाल दूँ
सोचता हूँ आज मैं और थोड़ा जी लूँ...
रुतबा ऐसा कमाया मंज़िल कि चाहत में
हर किसी को झुकाया पैसों के घमण्ड में
शिशे के महल को पलभर में गीरा दूँ
सोचता हूँ आज मैं और थोड़ा जी लूँ...