मैं धरती हूँ
मैं धरती हूँ
मैं धरती हूँ,
इसलिए मुझ पर,
होता अत्याचार,
क्यों मेरे जिस्म का
करते हैं लोग व्यापार।
कितना कुछ देती हूँ,
मैं ना कोई ओर-छोर,
मैं चल भी सकती नहीं।
जाऊँ किस ओर,
डगर-डगर, नगर-नगर,
शहर-शहर मुझमें बसा।
मुझ में सहनशीलता,
मेरे ऊपर सब चलते,
ना जाने फिर भी क्यों,
दर्द देते रहते हैं।
माँ, मिट्टी, माटी, जमीन, भूमि,
क्या कुछ लोग कहते,
सबकी अपनी-अपनी समझ,
क्या कैसी-कैसी, जीने का स्रोत।
अन्न ,जल मेरे सीने में,
हर तरफ से अलग-अलग,
समाहित मैं ना होती,
तो सारी सृष्टि बनती ही ना।
क्योंकि मुझ से ही,
यहाँ सब कुछ,
जिसको प्रेम है मुझसे,
मुझ पे सर झुकाते।
जिनको है नफरत
मेरे सिर झुकाते हैं,
क्या सोचकर लोग,
मुझे अपना बनाते हैं।
इतना तक ठीक,
मगर मुझे अपना बुलाते हैं,
मैं किसानों, प्रेमियों,
कवियों की आत्मा हूँ,
मैं धरती हूँ।