मैं अपना देख़ूँ , कि तुम्हारा
मैं अपना देख़ूँ , कि तुम्हारा
मैं सम्पन्न, निश्चिंत ,
भला क्यूँ
जानू दर्द बिवाई का ।
सूखे से फटती धरती के ,
घायल तलवे पाँवों का ।
पैरों में पैज़ार सुकोमल
घर में बहते नल की कल-कल
अघाये मित्रों का मंडल
सूखे पर का ज्ञान परोसूँ
मैं सम्पन्न, निश्चिंत ,
भला क्यूँ जानूँ ,
दर्द बिवाई का ।
इधर ,
दफ़्तर मेरा तीन सितारा
उस पे ख़्वाहिशें ,पाँच सितारा
काँच की दीवारों के पार
रुमानी बारिश का संसार ।
उधर ,
मावठा , ओलों की मार
अकुलाये , कुम्हलाये चेहरे
मैं क्यूँ पहचानूँ भला
मैं सम्पन्न, निश्चिंत ,
भला क्यूँ जानूँ ,दर्द बिवाई का ।
कल की ही थी ,शाम वो मेरी
घना कुहासा , रंगत गहरी
गंध कोई मदमाती धुंध की
कैसे मानूँ ,उस कोहरे ने
कल
ले ली ज़ान हज़ारों की
मैं सम्पन्न, निश्चिंत ,
भला क्यूँ जानूँ ,दर्द पराई का ।
बीच राह में पग-बाधा बन
क्यूँ ग़ैरत मेरी ललकारें ये
लगा चिता से , आग लगा दो
ऐसे कितने सख़्त ज़ान ये
दफ़न धरा में गहरे कर दो
माटी ऐसे धीरवान ये
फ़ेंक दो गिद्धों के आगे
तापस ऐसे बेज़ुबान ये
अब दूर हुआ अंतस का कंटक
छूटा दर्द पराये का
कागद मेरा , लेखनी मेरी
रंग मेरी रौशनाई का
मैं सम्पन्न, निश्चिंत ,
भला क्यूँ जानूँ ,
दर्द बिवाई का ।