वहाँ पानी नहीं है
वहाँ पानी नहीं है
वहाँ पानी नहीं है
--दिविक रमेश
’वहाँ पानी नहीं है ।’
सुनकर या पढ़कर
क्यों नहीं उठता सवाल
कि वहाँ पानी क्यों नहीं है ।
उठती है तो बस एक शंका, एक चिन्ता
एक संतोष में लिपटी -
अच्छा है यहाँ तो पानी है ।
यहाँ भी नहीं रहा पानी तो?
कैसे बचाया जाऐ यहाँ का पानी?
’वहाँ पानी नहीं है ।’
ज़मीन फसलें नहीं आग उगल रही है ।
मिट रही हैं पगडण्डियाँ तड़क कर।
कैद हो गया है आवागमन अदृश्य पाताल में।
आँखों में
अपमान पिघल कर लहू बन गया है ।
प्यास को याद नहीं कब बुझी थी वह!
’वहाँ पानी नहीं है ।’
सूख चली हैं कविताऐं।
कीचड़ तक नहीं खींचतीं
शब्दों की बाल्टियाँ।
सामूहिक गीतों की
ख़ुद जला रही हैं चिताऐं
पनिहारिनें।
छूट गई है पोते के हाथ से दादा की उँगली।
’वहाँ पानी नहीं है ।’
सवाल तब भी नहीं उठ रहा
वहाँ पानी क्यों नहीं है ?
अगर आसमान एक है
और ज़मीन भी
तो क्यों क्रूर है वहीं का आसमान?
तो क्यों क्रूर है वहीं की जमीन?
एक हैं
तो क्यों आरक्षित हैं
बहुत से झरने आसमान के?
क्यों आरक्षित हैं
बहुत से कुँऐं जमीन के?
क्यों आरक्षित हैं बहसें
ठाकुर के कुँओं सी?
’वहाँ पानी नहीं है ।’
सुन कर या पढ़ कर
अगर कोई हँस रहा है
तो वह है इक्कीसवीं सदी।