धरती को वर्जित है सूरज को छूना
धरती को वर्जित है सूरज को छूना
जब भी दुआ के लिऐ हाथ बढ़े
बस इंतेज़ार बरसता रहा,
मैं तकती रही बरसों
वो बरसों आँखों से टपकता रहा।
एक दिन कहा था उसने मैं आऊँगा
और मैं सूरज को बाँहों में समेटने की ख़्वाहिश लिऐ
रोज दिल को बुझाती रही।
वो दूर से दिखाई देता
और मैं बुझी हुई सी राह पर खड़ी हो जाती।
वो रोज रौशनी की उम्मीद दे जाता
और मैं अपनी ठंडी देह की गठरी में
उसकी गर्म हवा छुपा लेती।
वो कभी नहीं आया,
उम्मीद की रौनी पर बादल मँडराते रहे,
और देह की गठरी छन्न-छन्न बुझती रही।
लेकिन दुआ में हाथ अब भी उठे हैं,
न जाने कौन सी अमावस को
सूरज मेरी बाँहों में गिर जाऐ
और मैं प्रेम की रौशनी दुनिया में फैलाती रहूँ
बुझे दीपक जलाती रहूँ।
अँधेरी राहों को उजागर कर दूँ,
मन के अँधेरों को रौशन कर दूँ।
लेकिन ये धरती का नसीब है
कि उसे सूरज की रौशनी और ताप नसीब है
लेकिन उसे छूना वर्जित है।