मृग-तृष्णा
मृग-तृष्णा
सब कुछ समाहित है भीतर में
फिर भी दर-दर की ठोकर खाता हूँ
बसा है परमात्मा मेरे भीतर भी
फिर भी मंदिर-मस्जिद पर सिर झुकाता हूँ
मृग-तृष्णा हैं सारी इच्छाएँ
स्वयं की शक्ति का मान नहीं
एक महक उड़ी तो दौड़ा पूरे वन में
भीतर की कस्तूरी का ज्ञान नहीं
बाह्य-आडम्बर है धूप में सड़क पर दिखता पानी
ये शरीर भी पंच-तत्त्व से बना एक छलावा है
निरन्तर करते रहे प्रयास इसे सुसज्जित रखने का
जाना ही पड़ा जब आया वहाँ से बुलावा है
आजीवन न समझ सका
संतुष्ट रहना ही जीवन का मर्म है
जो कुछ रह जायेगा इस धरती और उस अम्बर में मेरा
वो दौलत नहीं,वो मेरा कर्म है
नींव के ईंट के महत्व को झुठला
एक विशाल ईमारत सा खड़ा हो जाना चाहता हूँ
अब मैं अपने माता-पिता से ही
बड़ा हो जाना चाहता हूँ
स्वयं की प्रतिभा पर करता संशय
किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में जीवन पहुँचाया
अथक प्रयास पर भी जब मिली न कस्तूरी
थक हारकर अपने चंचल मन को बहलाया
एक श्वेत वस्त्र धारण करने को
पूरा जीवन रंगो के पीछे भागा
न आया था कोई साथ में,न चलने को तैयार हुआ
अंतिम सांस में टूटा हर रिश्ते का धागा
सोता रहा सारा जीवन,अहम की मस्ती में
चढ़ा जो चार कन्धों का ऋण ,मैं फिर से जागा
असहाय अवस्था में वो ऋण सर पर बाँधे
पापों के प्रायश्चित हेतु शमशान की ओर मैं