संसर्ग
संसर्ग
मुझे पता है कि जब भी
मै मुश्किलों में पड़ता हूँ
जब भी लगता है कि
कोई डोर हाथ से छूटी जाती है
सहसा पृष्ठभूमि में पढ़ी
तमाम ऋचाओ का
असर जागता है
और फिर हाथ से फिसलती कोई डोर
सहसा अँगुलियों में ठहर जाती है
मटर छीलते अचानक
इल्ली का निकलना और
तुम्हारा डर जाना यक बा यक
झूलों के लंबे डग से
तुम्हारा डरना
सहमना यक बा यक
और फिर मेरा तुम्हे थामना
डरों के दौर से छिपाना
फिर चहकाना पर्यन्त
सच आज भी वे पल
मेरे वजूद का जीवंत हिस्सा है
जिस घर में मै पुकारा करता था
माँ को किसी भी कोने से
उनके अवसान के बाद
तुमने माँ शब्द को उस घर में
ज़िंदा रक्खा
मै पुकारूं या मेरे बच्चे
उस घर में माँ
रूप बदला है मगर
शब्द को जिन्दा रक्खा
मेरे गुस्से को, बेवजह जिद को
मुझसे फना करके
माँ के बाद भी
मुझे इंसान ही बने रहने दिया
इस समय जो घर है
तुम्ही से है मै यह मानता हूँ
दो कलियाँ चह-चहाती चिड़ियाँ
नीड में नूर अब तुम्हीं से है
तुम्हारी मांग में भरा सिन्दूर
अचानक मुझको इतनी ताकत देगा
यकीन हो गया मुझको
हवन पे और
पवित्र मन से लिए
सप्त फेरों पे
चलो कि आज और आगे
साथ चलने का प्रण कर लें
मुश्किलों में ना बिखरने का
संकल्प पुन: कर लें
जिन्दगी भर रहेंगे
इक दूजे की ताकत
आज इस अवधारणा को
रीति रिवाजों से नया संबल दें।