मेरा दोस्त
मेरा दोस्त
अब क्या मुझे इतना सा भी हक़ नहीं
तुम्हें अपना कह सकूँ,अपना बना सकूँ
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सुलगते अंगारों पर पड़ें जब पाँव तुम्हारे
उन अंगारों पर शीतल सा जल फेंक सकूँ
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ता उम्र गुज़ारी मैंने वफ़ा की तलाश में
किस्मत को कब तक यूँ ही कोसता रहूँ
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फ़ँसा हुआ है जब तू मुश्क़िल के घेरे में
तो बेजान बनकर चुपचाप ही देखता रहूँ
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बना लूँ तेरे दर्द को अपना दर्द समझकर
तो क्या वफ़ादारी का भी हिस्सा ना बनूँ
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माँगता रहा ख़ुदा से कोई वफ़ादार दोस्त
मिला है पता तो क्या मैं चुपचाप बैठा रहूँ
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बहुत रह लिया ख़ामोश तेरी मजबूरी देखकर
कब तक मैं सुस्त अंगार की तरह बना रहूँ