खामोशी
खामोशी
बचपन में रात के सन्नाटे से अक्सर डर लगता था
आज मेरे अंदर का सन्नाटा मुझे सोने नहीं देता।
ये सन्नाटा मेरे अंदर की ख़ामोशी है
जो रात की तरह घुप्प काली है।
और ये खामोशी अनिश्चित काल के लिए है,
काश की ये एक रात की बात होती।
जिसके बाद सुबह निश्चित है,
और शोरगुल में सन्नाटे का ग़ायब होना भी तय है।
मैं बाहर जब भी जाती हूँ बाहर का शोर
घर के अंदर ले आती हूँ।
पर घर का शोर भी मेरी तरह ही डरपोक है
घर की चौखट से बाहर नहीं जाता।
वैसे मेरी शख्सियत किसी शांत इंसान की जैसी नहीं
मैं बहुत बातें करती हूँ,
क्योंकि इन खामोशियों से सख्त परहेज है मुझे।
पर चिढ़ जाती हूँ जब खामोशियों को
अल्फ़ाज़ देने की बात आती है।
खामोशियों को अगर आवाज़ दे दी जाए तो,
वो चींखें बन जाती हैं,
जो रात के सन्नाटों को भी चीर देती हैं।
सुनने वाला इसके बाद
कुछ और सुनना नहीं चाहेगा
चुप्पी, दर्द की माँ सरीखी है
पालती है पोसती है,
अलग हो के भी अलग नहीं होती।
मैं खुद को सुनना नहीं चाहती
और जब आप खुद को नहीं सुनते
तो कोई और आपको नहीं सुनता।
खामोशियाँ तलवार तो हैं पर जंग लगी हुई
और ज़िन्दगी एक रणछेत्र और
आप कोई भी युद्ध जंग लगी
तलवार से तो नहीं जीत सकते।
कागज़ के पन्नों को कलम की
कलाकारी से मिलने दीजिये
अपनी खामोशियों को अब
सही मायने में अल्फ़ाज़ दीजिये।।