एक प्रेमी के कलम से
एक प्रेमी के कलम से
बडा सुकून मिला दिल को बस तेरी एक झलक देखकर
उस रात की तो बात ही कुछ और थी अब क्या कहें।
मानो उतारा हो खुदा ने तुम्हें जमीं और फलक देखकर,
तेरी बिखरी जुल्फे उसपर से वह चांदनी रात थी
सुध बुध खो बैठा था मैं जाने कैसी सौगात थी
ऐसा लगा बनाया हो तुम्हें परियों की झलक देखकर।
वह नशा शराब का था या शबाब का पता नहीं,
बस डुबा हुआ था मस्ती में मैं नवाब जैसा कहीं,
बन गया शायर तेरे जैसी शायरी और गजल देखकर।
ऐ हुश्न- ए- मल्लिका लफ्ज नहीं है तेरी तारीफों के,
तू बसी फ़िज़ाओं में और हम तो ठहरे इस जमीं के,
लगता है आना पडेगा फिर से अगला जनम देखकर।