हैरान हूँ फ़िर भी मैं!
हैरान हूँ फ़िर भी मैं!
हैरान हूँ फ़िर भी मैं!
कल रात बहुत बारिश हुई
भीगा सा मौसम
चहुँ ओर गीला-गीला सा आलम।
भिगोया तन
बरसती बारिश ने
भिगो ना सकी लेकिन
मन को और
मन में फैले रेगिस्तान को।
फैली हथेलियाँ
बारिश को समेटने को आतुर थी
लेनी थी महक सोंधी-सोंधी सी।
मन को ना छू सकी
गिर गई छू कर हथेलियाँ को ही,
वह महक ना जाने क्या हुई!
बाहर बारिश थी,
अंतर्मन में थे
तपते रेगिस्तान की
आँधियों के उठते बवंडर
तो वे बूंदे मन को छूती ही क्यूँ!
हैरान हूँ फ़िर भी मैं!
बारिश ने मन को ना भिगोया
फिर मेरे नयनों में
आंसुओ का साग़र कहाँ से उमड़ा।