माँ का स्मृति पुंज
माँ का स्मृति पुंज
माँ -- तुम्हारी स्मृतियों की फुहारों से मन तृप्त है ,
क्या हुआ जो स्थूल स्वरुप अब लुप्त है ।
समझ पाती हूँ अब तुम्हारे वजूद की वो भीगी ज़ंज़ीरे ,
जिनकी नमी से नम हैं आज मेरे चेहरे की सारी लकीरें ।
वक़्त कहता है ये लकीरें हैं उम्र की परछाइयां ,
न जाने वो ! ये हैं तुम्हारी सम्वेदनाओं की गहराइयाँ ।
अब उम्र की सांझ- वेला में याद आती हैं वो नसीहतें ,
मेरी कच्ची उम्र में जो मुझे लगती थीं बड़ी मुसीबतें ।
तुम्हारे अस्तित्व की वो ‘ स्त्री -शक्ति ‘ ,
समर्पण ,प्रेम ,करुणा ,ममत्व की वो प्रकृति ,
रिक्त। था इन सबसे ‘ पिता के पुरुषत्व का संसार ‘।
हुआ मेरे भीतर तुम्हारी ही गरिमा का संचार ।
पिता थे ‘ सूर्यपुंज ‘ तो तुम थीं ‘ धरा की शीतलता ‘,
उनके सूर्य थी तुम्हारी तेजस्विता ।
स्मरण आता है तुम्हारा दिन भर आँगन में डोलना ,
दौड़ -दौड़ सब काम करना मुंह से कुछ न बोलना ।
रुनझुन करती पायल तुम्हारी कोयल संगीत सुनाती थी ,
लोरी तुम्हारी हम बच्चों को मीठी नींद सुलाती थी ।
तुम्हारी निशानी ‘ वो गुड़िया ‘ आज भी सहेज कर रखी है ,
आज भी बन ‘ नन्हीं ‘ मैंने उसकी ऊँगली थाम रखी है ।
तुम्हारे हाथ की वो ‘ बेसन रोटी ‘ याद आती है ,
माँ --तुम्हारी गोद की सुख -स्मृतियां बड़ा रुलाती हैं ।